शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बेज़ुबानों की संवेदना ...

कल रात घटित हुई एक सच्ची घटना पर आधारित....

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बेज़ुबानों की संवेदना....

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पूस की
ठंडी रात ,
हो रही थी
हलकी बरसात ..
टहलने
निकले थे हम
रात्रि भोजन के
पश्चात ...
करुण विलाप
श्वान शिशुओं का
अकस्मात
ठिठका गया
हमें ,
देखा
मेहंदी की बाड़
से सटी
नाली के किनारे
छ: नन्हे थे
जमे ..
पास जा कर
झाँका जो
नाली में ,
गिरा था
उन सा ही
एक नन्हा ,
असफल कोशिश
बाहर आने की
कर रहा था
वो तन्हा ..
उठा कर
हाथों से
उसे
रख दिया
बाकी शिशुओं
के साथ ..
मुड लिए
घर की तरफ
कि अब
हो जायेंगे
ये शांत...
किन्तु क्रंदन
सभी शिशुओं का
फिर भी रहा
जारी ...
नाली से निकला
शिशु
ज्यूँ कर रहा था
फिर गिरने की
तैयारी ..
दो बार रखा
उसे
नाली से परे
मेहंदी की बाड़
के भीतर ...
किन्तु
चला आता था
वह
नाली की ही ओर
रो रो कर ...
तभी हुआ
अन्य दिश से
नाली में
एक और
नन्हे का
आगमन..
देख कर
उसको
बढ़ा था
सब शिशुओं का
फिर रुदन ...
उठा उसे भी
बाड़ के भीतर
धरा
जब निज हाथ से
व्यक्त करने लगे
खुशी ,
शिशु
एक दूसरे को
चाट के ...
छू गयी
मेरे हृदय को
ये मूक सी
संवेदना ....
बस माह भर की
उम्र के
शिशुओं में
कितनी
वेदना !!!
एक भी साथी
घिरा था
खतरे में
जिस
दम तलक ...
जान जोखिम
में थी फिर भी
न था रहा
कोई पलट
आह!!
इंसानों की
फितरत में
क्यूँ इतना
स्वार्थ है !!
काश...
सीखे
बेज़ुबानों से ही
क्या परमार्थ है!!!

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

उस गुलमोहर के तले.....

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उस गुलमोहर के तले
बिता लें आज
फिर कुछ पल ,
मिले थे हम
जहाँ इक रोज़
पहले पहल ...

प्रथम निवेदन
प्रणय का
हुआ था
आँखों ही
आँखों में,
दौड़ गए थे
स्पंदन जिसके
गुलमोहर की
शाखों में ..

किया था
पुष्पों से
अनुमोदन
उसने
हमारे
प्यार का ...
साँसों में
अपनी है
ताज़ा,
एहसास
उस
ख़ुमार का ...

चलो ..!!
भूल कर
दुनिया की
अंतहीन
भागमभाग ,
हम चुरा लें
थोड़ी सी
उन
दग्ध
लाल फूलों से
आग ....

साक्षी बन
गुलमोहर
आशीष दे
इस साथ को ..
छुप के
पहलू में मेरे 
तुम
थाम लेना
हाथ को ...

तेरे माथे की
सलों को
मिटा दें
मेरी ये उंगलियां ...
हों प्रवाहित 
अधरों से मेरे 
तन में तेरे
बिजलियाँ ...

तन औ' मन 
गर क्लांत है तो 
ले ज़रा सा 
तू ठहर
भूल जा 
दुनिया के गम 
और 
जी ले 
खुद को एक पहर

हो उठे
हर कण में
झंकृत
सुर
कोई
संगीत का ...
छेड़ दें
अपने हृदय
बस राग
अपनी प्रीत का ...

भूल जाओ
तुम कहाँ हो
और
मैं भी हूँ कहाँ !!!!
द्वीप अपना
इक बना लें
भूल जाएँ ये जहाँ ....

इन्ही लम्हों से
गुज़र कर
खुद को हम
जी पायेंगे ....
दुनिया
कब छूटी है
किससे
जो हमीं
छुट पाएंगे ...

है हकीकत
साथ अपना
बाकी जीवन कर्म है
खुद की जानिब
लौट आना
ये ही
सच्चा धर्म है ......

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

अभिमान और अवमान ...


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अभिमान(अहंकार) और अवमान (तिरस्कार) ऐसी दो स्थितियां हैं जो बहुत से सामाजिक , मानसिक और शारीरिक अपराधों को जन्म देती हैं.. आत्मा के स्तर पर इनका उन्मूलन करते हुए आत्मिक संतुलन आवश्यक है.. इसीको आधार बना कर इन दोनों ही स्थितियों में आत्मिक हनन पर प्रकाश डालने की कोशिश करी है मैंने..कुछ कमी का इंगित या सुझावों का स्वागत है
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समझ श्रेष्ठ
औरों से
निज को
दम्भी हो जाता
इंसान ..
चाहे हरदम
मिले प्रशंसा
भले ही हो
मिथ्या
सम्मान ...
किंचित भी
हो कमी जो
इसमें ,
मान लेता
उसको
अपमान ...
बेहतर हो
कोई और
जो खुद से,
क्रोधित
हो जाता
अभिमान ....
आगे रहने को
फिर सबसे
बन जाता
कपटी
बेईमान ...
राह
सत्य की
छोड़ के पीछे,
पकड़ लेता
राहें
अनजान ....

यही हश्र
अवमान
है करता ,
खुद को
जान ना
पाता है ..
समझ
अयोग्य
स्वयं को
इन्सां,
दीन-हीन
बन
जाता है...
प्रतिभा
कुंठित
हो जाती है ,
पनप नहीं
वो
पाता है ...
आश्रय
अनीति का
है लेता ,
अन्याय से
न लड़
पाता है ...
खातिर
खुद
को
साबित
करने ,
कपटी भी
बन जाता है ...
छल,
पाखण्ड
खुशामद जैसे
हथकंडे
फिर
अपनाता है

विकृत मन के जटिल भाव हैं
अभिमान हो या अवमान
दोनों के चंगुल में विस्मृत
होता मानव का निज ज्ञान

रविवार, 19 दिसंबर 2010

"खैरख्वाह ".....

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हो जाते हैं
अकस्मात
प्रकट
कई अनजान
"खैरख्वाह"
बुरे हालातों में मेरे ...
लटके हुए चेहरों से
दिखा कर
संवेदना झूठी
होता है तुष्ट
'अहम् '
इन
तथाकथित मित्रों का ..
देता है
दुःख दूसरों का
राहत
उनकी खुद की
दयनीय ज़िन्दगी को ...
पाया है
सच्चे मित्रों को मैंने
सदैव
इर्द गिर्द अपने
बांटते हुए
हर पल ,
हर ख़ुशी ,
प्रफ्फुलित चेहरों से ..
देते हुए
हौसला मुझको
कदम दर कदम
और
मनाते हुए
उत्सव
सफ़लता के क्षणों का
साथ मेरे ......

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अक्स...


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क्यूँ  हैं हम
मुखौटों के
प्रतिबिबों के बीच
धुंधलाते
आईने में
चेहरा अपना ....
धुल कर
आंसुओं से
होगा जब साफ़
आईना दिल का
दिखेगा तभी
मुस्कुराता हुआ
अक्स भी खुद का....


शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

किससे कहे सुने बैरागन ...

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कान्हा ही गर
ना समझे जो
व्यथा नैन के
नीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....

रह रह कसक
हृदय में उठती,
नयनन बरसे
अश्रु जल..
बाट जोहती
अँखियाँ थक गयी,
लगे बरस जैसा
हर पल...
कब तक लोगे
श्याम परीक्षा,
मूक प्रेम के
धीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की ....

अधिकार नहीं
जाना है
तुमपे,
है नहीं
मानिनी
राधा सी....
प्रेम किया
बस अर्पण उसने,
न तुम्हें
कभी कोई
बाधा दी....
तुम हो एक
बहता हुआ
दरिया,
संग रहे वो
तीर सी ...
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....

मीरा का
यह प्रेम
अनोखा,
दुनिया
जय जय
गान करे...
अमृत में
ढल जाता
प्याला,
मीरा
जब
विषपान करे...
हुई मुक्त वो
डूब प्रेम में,
खुली गाँठ
ज़ंजीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....






गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

सरमाया-ज़िंदगी का

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चांदनी रात में
नदी किनारे बैठे
मैं और तुम
निशब्द
लिए हाथों में हाथ
एकटक देखते हुए
लहरों पर
उतर आये
सितारों को
जिनकी चमक
है नज़रों में
हमारी ...
बहता है
मध्य हमारे
बस
मुखरित मौन
जिसकी संगति
दे रहा है संगीत
नदी की
कल कल का ...
यही लम्हे
सरमाया है
ज़िंदगी का मेरी
जब मैं बस 'मैं 'हूँ
तुम बस 'तुम ' हो
न मैं 'मैं हूँ
न तुम 'तुम' हो
दुनिया से
पृथक
दो अस्तित्व
हो उठे हैं
एकाकार
उस विराट में
खो कर
स्वयं को