शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

आंखमिचौनी

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खेलें हम तुम आँखमिचौनी
दिन बचपन के जी लें साथी...
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!

आसमान के विस्तृत तल में
चंचल बादल सा ढल जाओ
तरह तरह के रूप बदल तुम
हैराँ मुझको कर इठलाओ
खोजूं नेह भरा मैं बादल
जानूं वो ही तुम हो साथी ...
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!

कभी मैं बन के बुलबुल प्यारी
मिल जाऊं उड़ती चिड़ियों में
कभी बनूँ तितली बगिया की
छुप जाऊं खिलती कलियों में
चहक सुनो तुम, महक से पूछो
छुपी कहाँ मेरी है साथी ....??
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!

बचपन का ये खेल अनोखा
आज भी मन को कितना भाता
रोम रोम में प्रिय बसा कर
हर शै में फिर ढूँढा जाता
छुअन पवन की ,ताप सूर्य का
सबमें तुम होते हो साथी.....
कभी छुपो तुम नज़र से मेरी
छुपूँ कभी मैं तुमसे साथी ....!!
खेलें हम तुम आँखमिचौनी
दिन बचपन के जी लें साथी.......



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