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तोड़ कर जाल
इन उलझते हुए
बेमानी से
लफ़्ज़ों का ,
चलो आओ जानां !!
भर के बाँहों में
इक दूजे को ,
इक दूजे को ,
बिखरने दें
स्पंदन
ख़ामोशी के,
दरमियाँ हमारे ....
दरकार नहीं
कुछ ज़्यादा की
इससे ,
जीने को
हो कर
मुक्कमल
इस गुज़रते हुए
लम्हें में....
5 टिप्पणियां:
दरकार नहीं कुछ ज़्यादा की इससे ,जीने को हो कर मुक्कमल इस गुज़रते हुए लम्हें में....
वह मुदिता जी -अपने एहसासों को बहुत ही खूबसूरत लफ़्ज़ों में बयां किया है आपने ....
इस बार कुछ अलग लिखा है मैंने -समय हो पधारियेगा ....
मन के भावों को बड़े ही सुंदर ढ़ंग से आपने अभिव्यक्ति दी है।
khamoshi bhi bahut kuchh kahti hai . sundar rachna
बहुत खूब.....मुराद पूरी हो.....आमीन|
आदरणीया मुदिताजी,
आपकी इन पंक्तियों ने निःशब्द कर दिया है.
भर के बाँहों में,
बिखरने दो
स्पंदन
ख़ामोशी के,
दरमियाँ हमारे ...
दरकार नहीं
कुछ ज़्यादा की
इससे
जीने को
हो कर
मुक्कमल
इस गुज़रते हुए
लम्हें में....
अहसास को शब्दों के लिहाफों की जरूरत क्या है,
आपके इस खूबसूरत अहसास को सलाम.
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