है सहरा
हिज्र का
कैसा ये
जालिम!!
कि अब तो
अश्क भी
खुश्क
हो चले हैं...
तपिश
बढ़ती गयी
हर ज़र्रा ज़र्रा,
कि देखो
आग बिन
हम
यूँ जले हैं!!!!
हिज्र का
कैसा ये
जालिम!!
कि अब तो
अश्क भी
खुश्क
हो चले हैं...
तपिश
बढ़ती गयी
हर ज़र्रा ज़र्रा,
कि देखो
आग बिन
हम
यूँ जले हैं!!!!
8 टिप्पणियां:
हिज्र का सहरा है ही ऐसा.
अच्छा शेर.
सलाम.
अब तो
अश्क भी
खुश्क
हो चले हैं...
..... intzaar kee had hoti hai
पढ़कर मन मुदित हुआ . आभार
आग बिन हम यूँ जले हैं....
खूबसूरत........
AAG BIN HAM YOUN JALE HAIN....
SUNDAR RACHNA.
मुदिता जी.......बख़ूबी दर्द को उकेरा है ......पर यहाँ मुझे लगा ....."बढ़ती गयी
हर ज़र्रा ज़र्रा," की जगह 'तपिश बढती गयी ज़र्रे - ज़र्रे की' होना चाहिए था......
bahut khoob...
aag bin jalna
jaise-
bina paanv ke chalna
jaise karake ki thand me
ahista ahista barf ho galna
shayad mere udgar aapko bata sakein ki mujhe aapki prastuti achhi lagi.badhayee
विशाल जी ,रश्मि जी ,आशीष जी ,दीपक जी ,सुरेन्द्र जी ,इमरान जी और विजय जी ..आप सब का बहुत आभार
@ इमरान जी ,
आपकी सोच भी अपनी जगह सही है किन्तु मैंने जिस अनुभूति के तहत लिखा वह यह है कि आग बिन हमारे जलने से तपिश फैलती गयी ..ज़र्रा ज़र्रा ...इसको महसूस कीजिये ..जैसे सूखे जंगल में आग फैलती जाती है उसी तरह कुछ :) :) ..दोनों बात के अलग एहसास मिलेंगे आपको...
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