सोमवार, 25 अप्रैल 2011

चंद और रोज...

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जी लिए हैं
मैंने
चंद लम्हे..
गुज़र कर
तेरे
पुराने खतों से.....
जो रह गए थे
दबे हुए
तेरी
किताबों में...
मिल गयी हैं
कुछ और सांसें
चंद और रोज़
लेने के लिए...

5 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

उफ़ ……………कुछ कहने लायक नही छोडा…………बहुत सुन्दर रचना।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना...

monali ने कहा…

Aisi oxygen bhi har kisi ko naseeb nahi hoti.. sundar rachna :)

बेनामी ने कहा…

बहुत खूब......अतीत की यादें कभी-कभी जीने की वजह बन जाती हैं.....सुन्दर |

आनंद ने कहा…

मिल गयी हैं कुछ और सांसें
चंद और रोज़
लेने के लिए...
..
मुदिता जी .....आपकी सबसे बेहतरीन कविताओं में से एक !