जुड़ते ही स्वयं से
बदल जाती है
गुणवत्ता
जीवन की मेरे
पनपने लगती है
समझ
ज़िंदगी की घटनाओं की
बिना निर्णायक हुए ..
सही -गलत,
अच्छा -बुरा
से हट कर
'जो है -वो है '
की स्वीकृति
शांत करती है
मन -मस्तिष्क मेरा
'मुझे क्या मिलेगा! '
से हट कर
आ जाती हूँ
' मैं क्या दे सकती हूँ! ' पर..
'क्या टूट गया ?'
को भुला कर
होती हूँ केंद्रित
'क्या रच सकती हूँ नया !'पर..
' कैसे मिलेगा
आनंद मुझे ! '
के बजाय
सोचती हूँ
' कैसे व्यक्त करूँ
अपने आनंद को ! '
विचारों का संवेग
होने लगता है कम
और हृदय हो जाता है
अधिक संवेदनशील
जीवन के प्रति
आसान हो जाता है
भूलना
और
माफ करना
दिखने लगते हैं
वे सभी सत्य
जो
उद्व्गिन मन की
लहरों में रहते थे
छुपे हुए ..
रूपान्तरण
मेरे 'स्व' का
बन जाता है
उपहार
अन्यों के लिए
और
जीती रहती हूँ मैं
एक अनवरत आनंद में
स्वतंत्र हो कर
बाहरी दुनिया के
मिथ्या आवरणों से.....
8 टिप्पणियां:
मुदिता.........जिस तरह इस रचना में जीना सिखाया है ...सब सीख लें तो चहुँ ओर आनंद ही आनंद होगा.......पर,ये सब कर पाना किसी के लिए भी इतना सरल है क्या........बहुत ही सुन्दर तरीके से जीवन जीने का फलसफा बता दिया है
निधि जी ,
जीवन क्या हमें सिर्फ सरलता के लिए ही मिला है ? जीवन का लक्ष्य है आनंद .. और यदि उसकी राह दुरूह हो तो भी उस पर चलना ही अभीष्ट है.. और वैसे ऐसा होना वाकई बहुत सरल है... सिर्फ स्वयं की ओर लौटना होता है... वो एक प्रथम बिंदु..जहाँ से हमें दिशा मिलती है स्वयं की बस उसके प्रति सचेत रहना ही दुष्कर होता है क्यूंकि हमने उलझा लिया होता है बाह्य झंझटों में खुद को...एक बार वहाँ से मुक्त हुए तो कुछ करना ही नहीं होता .. स्वतः ही होता चला जाता है सब ... :)
आपको रचना पसंद आई इसका आभार
बहुत ही सुंदर रचना !
विचारोत्तेजक कविता।
जीवन सूत्र को सरलता से समझाने में कामयाब रही है ये कविता . मन अह्वलादित हुआ .
बहुत सुंदर ! सत्य को उद्घाटित करती कविता, बधाई !
bahut yatharth se bhari hui rachna
jisme jivan darshan mil raha hai....swayadhay aur aatnirakshan karte hue parishram ....se aanand milta hai..
jai shri raadheshyaam
supurb ....clapping
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