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अधमुंदी आँखों से
सूर्य की
प्रथम किरणों के
स्पर्श को
महसूसते हुए
होती है
शुरुआत
एक गृहणी के
दिन की...
छोड़ कर
गर्माहट
रजाई की
उठना ही है ,
नहीं होगा
हाज़िर
सामने उसके
कोई
लेकर
एक प्याली
भाप उड़ाती
चाय की...
होती है
शुरू फिर
एक
अनवरत
जिंदगी,
बंधी हुई
सुइयों से
घड़ी की ...
बन जाती है
बस यही
बंदगी उसकी,
घूमते घूमते
इर्द गिर्द
परिवार के,
मान बैठती है
धुरी खुद को
निर्धारित कर
अपेक्षाएं
सभी की....
वृहत हितों के
कारन करती
अनदेखी
सूक्ष्म हितों की..
पूर्व स्वयं की
आशा से
बन जाती
प्राथमिकताएं,
अभिलाषाएं
परिचितों की ...
स्वपन
अनजीये
बन जाते
आहुति
गृहस्थी के
पावन -अपावन
यज्ञ में ,
तथापि
करते प्रतिपादित
प्रज्ञा हीन
उसे जब
होती स्थिति
तर्क-वितर्क की ....
कुंठित हो
फिर अनचाहा
हो जाता
घटित
अकस्मात ही,
निरुद्देश्य कही
बातें अनजाने
कर देती
हृदय पर
घात प्रतिघात भी ....
फड़फड़ा कर
पंख
रह जाता
पंछी मन का
बेचारा ,
गृहिणी हो कर
क्यूँ तूने
आकाश
स्वयं का
हारा ???
छोड़ परिधि को
विस्तृत कर
अंतस दृष्टि
अपनी,
सत्व छुपा
नारीत्व का
ममतामय
तू ही तो है
जननी ......
घर बनता है
स्नेह से तेरे
जो कल था
दीवारें,
कण कण
खिल उठता है
पा कर
तेरे सुकोमल
सहारे...
किन्तु
खो देना
निज को
धर्म नहीं
गृहिणी का,
चेतन खुद को
रख कर ही
कर तू
संपादन
कर्तव्य का...
खो कर निज को
गृहस्वामिनी
गृह सेविका
सम हो जाती,
बिना पारिश्रमिक
बिना मान के
क्रमशः
विषम हो जाती...
पीड़ा इस
निर्मात्री की
अनुभव
काश कोई
कर पाता,
ईश्वर से पूर्व
सम्मुख उसके
शीश
सब का
झुक जाता....
अधमुंदी आँखों से
सूर्य की
प्रथम किरणों के
स्पर्श को
महसूसते हुए
होती है
शुरुआत
एक गृहणी के
दिन की...
छोड़ कर
गर्माहट
रजाई की
उठना ही है ,
नहीं होगा
हाज़िर
सामने उसके
कोई
लेकर
एक प्याली
भाप उड़ाती
चाय की...
होती है
शुरू फिर
एक
अनवरत
जिंदगी,
बंधी हुई
सुइयों से
घड़ी की ...
बन जाती है
बस यही
बंदगी उसकी,
घूमते घूमते
इर्द गिर्द
परिवार के,
मान बैठती है
धुरी खुद को
निर्धारित कर
अपेक्षाएं
सभी की....
वृहत हितों के
कारन करती
अनदेखी
सूक्ष्म हितों की..
पूर्व स्वयं की
आशा से
बन जाती
प्राथमिकताएं,
अभिलाषाएं
परिचितों की ...
स्वपन
अनजीये
बन जाते
आहुति
गृहस्थी के
पावन -अपावन
यज्ञ में ,
तथापि
करते प्रतिपादित
प्रज्ञा हीन
उसे जब
होती स्थिति
तर्क-वितर्क की ....
कुंठित हो
फिर अनचाहा
हो जाता
घटित
अकस्मात ही,
निरुद्देश्य कही
बातें अनजाने
कर देती
हृदय पर
घात प्रतिघात भी ....
फड़फड़ा कर
पंख
रह जाता
पंछी मन का
बेचारा ,
गृहिणी हो कर
क्यूँ तूने
आकाश
स्वयं का
हारा ???
छोड़ परिधि को
विस्तृत कर
अंतस दृष्टि
अपनी,
सत्व छुपा
नारीत्व का
ममतामय
तू ही तो है
जननी ......
घर बनता है
स्नेह से तेरे
जो कल था
दीवारें,
कण कण
खिल उठता है
पा कर
तेरे सुकोमल
सहारे...
किन्तु
खो देना
निज को
धर्म नहीं
गृहिणी का,
चेतन खुद को
रख कर ही
कर तू
संपादन
कर्तव्य का...
खो कर निज को
गृहस्वामिनी
गृह सेविका
सम हो जाती,
बिना पारिश्रमिक
बिना मान के
क्रमशः
विषम हो जाती...
पीड़ा इस
निर्मात्री की
अनुभव
काश कोई
कर पाता,
ईश्वर से पूर्व
सम्मुख उसके
शीश
सब का
झुक जाता....
12 टिप्पणियां:
bhaavpurn...sundar abhivyakti.
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
koyla bhai n rakh ...
vatvriksh ke liye yah rachna bhejen rasprabha@gmail.com per parichay aur tasweer ke saath
गज़ब कर दिया……………नारी जीवन का यथार्थ है ये कविता मगर यही कोई समझ नही पाता……………एक बेहतरीन और सशक्त कविता।
bahut achchi aur yatharth rachna.
ये तो नारी जीवन की विडंबना है कि हमेशा प्रेम त्याग और पूर्ण समर्पिता होने के बाद भी उसके जीवन को कमतर आंका जाता है.इस विडंबना से उपजी अंतर्व्यथा का बेहद संवेदनशील और मर्मस्पर्शी चित्रण. आभार.
सादर
डोरोथी.
बहुत ही सशक्त और मर्मस्पर्शी रचना ! आपने हर गृहणी की वेदना को मुखरित कर दिया है !
फड़फड़ा कर
पंख
रह जाता
पंछी मन का
बेचारा ,
गृहिणी हो कर
क्यूँ तूने
आकाश
स्वयं का
हारा ???
अपने सारे सपने, सारा आकाश हार देने के बाद भी उसके हिस्से क्या आता है ? सिर्फ उलाहने और उपालंभ ?
बहुत खूबसूरती से आपने शब्द दिए हैं हर गृहणी की इस शाश्वत व्यथा को ! बधाई स्वीकारें !
एक सशक्त रचना...पसंद आई.
नारी जीवन का यथार्थ ...... संवेदनशील और सशक्त कविता
कभी कभी सोचता हूँ, काश!
काश! लिख के कहना जरुरी न होता...प्रणाम!
पीड़ा मूक होती है
खुद ही महसूस करना होता है
सुन्दर रचना
अत्यंत सुन्दर एवं भावपूर्ण कृति है यह. इसे पढकर पुष्टि हो गई है कि एक सुसंस्कृत तथा संवेदनशील कवयित्री ही इतनी भावना प्रधान कविता लिख सकती है. बहुत बहुत साधुवाद.
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