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एक ही छत के नीचे
दो पृथक अस्तित्व
कोशिश में
बचाने की
अपने
मिथ्या वजूद को
बचते हैं
सामने भी
पड़ने से
एक दूसरे के
अपने
असली चेहरे के साथ ...
टकराहट
'मैं'
और
'तू'
की
खड़े कर देती है
और भी
वृहद
'मैं'
और
'तू'
क्यूंकि
हो कर
आवरण हीन
'हम'
में विलय
जो नहीं हो पाते
वे कभी
6 टिप्पणियां:
अपनी ही हेकड़ी में रहने से कहां बात बनती है, दूसरों की ख़ुशी के लिए नपना भी बड़ी बात है
अतिसुन्दर भावाव्यक्ति , बधाई के पात्र है
‘मैं‘ और ‘तू‘ का ‘हम‘ हो जाना इतना आसान नहीं है...अच्छी कविता।
अंतर्द्वन्द और मिथ्या वजूद की कश्मकश है जिन्दगी. मैं और तूँ का अहं कब शांत होता है.
सुंदर अभिव्यक्ति !
मैं और तू ..से हम तक की यात्रा बड़ी मुश्किल है मुदिता जी .... अक्सर एक ही छत के नीचे रहने वालों के लिए तो लगभग असंभव !
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