एक मित्र की रचना जिसका जवाब देने की कोशिश में.."सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की " का जन्म हुआ उसे यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ और उसके साथ अपनी रचना ..मेरी रचना इस ज़मीन की पुकार के बिना अधूरी है ..
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने
क्यों करते हो हाय-तौबा
छूने आसमान को
लाख मुश्किलें उठा कर भी
छू नहीं सकता
एक बौना हसीन चाँद को
समझाया था अपना बन
उस पत्थर -दिल की हम-नशीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…..
जब गिरेगी बिजलियाँ कड़ कड़ा कर
गिर पड़ेंगे सींग तुम्हारे टूट.कर
हिस्से तुम्हारे बदन के
मुँह मोड़ेंगे तुझसे रूठ कर
माना के ज़ज़्बा-ए-गुरूर तुम्हारा है आज़
कल झुकेगी गर्दन शर्म से तुम्हारी मगर
कह डाला था उस ज़मीन पूर-यकीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने……
काटता है च्यूंटी तुम्हारी
सूरज हर रोज़ चमक कर
छेदती है तुझे बर्फ़ीली हवाएँ या
तपती आँधियाँ बहक कर
छोड़ .दो तुम नशा-ए-गुरूर
राज़-ए-हकीकत समझ कर
कही थी यह बात एक जाहिल से एक ज़हीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…….
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की...
हर लम्हा उसकी हम-नशीन की
चकरा गया वो सुन के ये बातें
अपने गुरूर पे की गयी घाते
हैरान सा देखता रहा ज़मीन को
समझा था हमसाया उस हसीन को
आज वही उसको समझ ना पाई है
उसकी दृढ़ता उसे अकड़ नज़र आई है
ना सहता मैं कड़कड़ाती बिजलियाँ
तो जल गयी होती तू कभी की
तुझ से पहले घात सह कर हवा का
जान बचती है तुझपे बसने वालो सभी की
गम नहीं बदन के घुलने का मुझे
मिल के बन जाता है हस्ती वो भी ज़मीं की
और बनती है धरा फिर और सुंदर
खुश्बू होती है हवा में तेरी नमी की
एक होने का सुकून मिलता है मुझको
तूने कैसे सोचा जज़्बा-ए-गुरूर है
हूँ जुड़ा गहरा जड़ों तक मैं जो तुझसे
मेरे जीने का तो ये दिलकश सुरूर है
सूरज का ताप औ बर्फ़ीली हवायें
तुझको झुलसा ना दें ठिठूरा ना जायें
इस वजह खड़ा हूँ यूँ सीना तान कर मैं
तेरे कोमल मन को ये चटका ना जायें
आज तूने यूँ पुकारा ए हम-नशीन
बात कुछ अनकही तुझ तक पहुँची नही
तू है तो मैं हूँ,मैं हूँ तो तू है
कहाँ इसमें अकड़ और कहाँ इसमें गुरूर है
मैं हूँ जाहिल और तू ज़हीन है
इसीलिए ये रिश्ता पूरक है , हसीन है
चल साफ कर मेरे लिए तू मन ये अपना
आ मिल कर देखे सुन्दर धरा का हम सपना
छूने आसमान को
लाख मुश्किलें उठा कर भी
छू नहीं सकता
एक बौना हसीन चाँद को
समझाया था अपना बन
उस पत्थर -दिल की हम-नशीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…..
जब गिरेगी बिजलियाँ कड़ कड़ा कर
गिर पड़ेंगे सींग तुम्हारे टूट.कर
हिस्से तुम्हारे बदन के
मुँह मोड़ेंगे तुझसे रूठ कर
माना के ज़ज़्बा-ए-गुरूर तुम्हारा है आज़
कल झुकेगी गर्दन शर्म से तुम्हारी मगर
कह डाला था उस ज़मीन पूर-यकीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने……
काटता है च्यूंटी तुम्हारी
सूरज हर रोज़ चमक कर
छेदती है तुझे बर्फ़ीली हवाएँ या
तपती आँधियाँ बहक कर
छोड़ .दो तुम नशा-ए-गुरूर
राज़-ए-हकीकत समझ कर
कही थी यह बात एक जाहिल से एक ज़हीन ने
पुकारा था पहाड़ को ज़मीन ने…….
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की
सुनी पहाड़ ने पुकार ज़मीन की...
हर लम्हा उसकी हम-नशीन की
चकरा गया वो सुन के ये बातें
अपने गुरूर पे की गयी घाते
हैरान सा देखता रहा ज़मीन को
समझा था हमसाया उस हसीन को
आज वही उसको समझ ना पाई है
उसकी दृढ़ता उसे अकड़ नज़र आई है
ना सहता मैं कड़कड़ाती बिजलियाँ
तो जल गयी होती तू कभी की
तुझ से पहले घात सह कर हवा का
जान बचती है तुझपे बसने वालो सभी की
गम नहीं बदन के घुलने का मुझे
मिल के बन जाता है हस्ती वो भी ज़मीं की
और बनती है धरा फिर और सुंदर
खुश्बू होती है हवा में तेरी नमी की
एक होने का सुकून मिलता है मुझको
तूने कैसे सोचा जज़्बा-ए-गुरूर है
हूँ जुड़ा गहरा जड़ों तक मैं जो तुझसे
मेरे जीने का तो ये दिलकश सुरूर है
सूरज का ताप औ बर्फ़ीली हवायें
तुझको झुलसा ना दें ठिठूरा ना जायें
इस वजह खड़ा हूँ यूँ सीना तान कर मैं
तेरे कोमल मन को ये चटका ना जायें
आज तूने यूँ पुकारा ए हम-नशीन
बात कुछ अनकही तुझ तक पहुँची नही
तू है तो मैं हूँ,मैं हूँ तो तू है
कहाँ इसमें अकड़ और कहाँ इसमें गुरूर है
मैं हूँ जाहिल और तू ज़हीन है
इसीलिए ये रिश्ता पूरक है , हसीन है
चल साफ कर मेरे लिए तू मन ये अपना
आ मिल कर देखे सुन्दर धरा का हम सपना
3 टिप्पणियां:
sawalon jawabon ke is daur men chale aana mazedar raha. aapke mitra ko bhi dhanywad jisne aisa kuchh likha ki aapki 'creativity' trigger ho gayi.aapke yeh mitra bade ajeeb lagte hain, kyon karte hain aisa jisse.....jokes apart: bahut hi khubsurat jugalbandi hai...nazar na lag jaye :)
aapki rachna shandar hai, magae donon hi zaheen ho tab ? :)
Vinesh ji
Rachna par aapka safar ananddayak raha tasalli hui... Mitr hain to waqyi ajeeb se..:) kyunki jo auron ko nahin dikhta unko dikh jata hai...meri creativity bhi aisi hi suptawastha mein thi jise unhone aise prashn poochh ke jaga diya.. ab being a teacher koi sawal poochhe to uska jawab dhoondhne mein jut hi jati hun main..:)
raha aapka sawal.. is jugalbandi mein.. i mean Zameen aur pahad ke vartalaap mein kaun zaheen hai aap samjh hi gaye honge.. dono zaheen hon to akshep pratikshep nahin honge.. Aur phir kisi ko bhi doosre ki Ego satisfy karne ke liye use Zaheen hone ka certificate nahin dena padega ...rishta swayam hi poorak ho jaayega ...
Hi..
Donon Kavitaon ke bhav adwiteeya hain, khaskar parvat ka jameen se jawab khasi khubsurat ban padi hai..
Sampurn kavita ke bhav etne madhur hain ki unki vyakhya ko shabdon main bandh pana asambhav hai..
Jameen ke parvat se prashnon main preyasi ka anurag dikhta hai.. Jahan prem hota hai, ershya swatah hi aa jati hai..
Parvat ka jameen se anuraag etna madhur ban pada hai jaise prem ki parakashtha ho gayi ho, jahan parvat aur jameen mil ke aise ek hue hain ki dono ka mul astitav samapt ho gaya hai aur wo ek naye rup main dhara ban jate hain..
'Wah' kafi chhota shabd hai par ese krupya parvat aur jameen ke aatmik prem sa vishal samajheyega..
Behtareen, abhivyakti..
DEEPAK SHUKLA..
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