शनिवार, 29 सितंबर 2018

मोम हूँ....

 ( मुझको इस रात की तन्हाई की धुन पर)
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जिस्म को रूह के पोशीदा रहे राज़ न दो
छेड़ पाये ना तराना-ए- दिल वो साज़ न दो.....

तेरी हसरत में गुज़ारी है शबे ग़म जग के
नींद आई है दर-ए- सहर पे,आवाज़ न दो ...

वस्ल रूहों का ना पाबंद हुआ जिस्मों से
है ये अंजाम-ए-मोहब्बत नया आगाज़ न दो ...

हमनशीं हो तुम ही हमराज़ हो मेरे जानां
ना चटक जाए ये दिल गैर से अंदाज़ न दो ....

जब निगाहों से ही जज़्बात छलक जाते हैं
नग़्मों में ढलती हैं ख़ामोशियाँ अलफ़ाज़ न दो ....

है निगाहों की मुझे नर्म तमाजत काफ़ी
मोम हूँ संगतराशी के सख़्त अंदाज़ न दो ....

है नज़र सू-ए-फलक ,उड़ना मगर नामुमकिन
पंख पे जीस्त रुकी है अभी परवाज़ न दो .....

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