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दिया था सन्देश
सिकंदर महान ने
होने पर बोध
अपनी लालसाओं की
व्यर्थता का ,
दिखा कर खाली हाथ
जाते हुए इस दुनिया से..
किन्तु
होता नहीं ग्राह्य
ऐसा कोई सन्देश
अहम् में डूबे
तानाशाहों को ..
समझ के नियंता
खुद को
अन्य ज़िंदगियों का ,
करते रहे
मनमानी,
छीनते रहे
ज़िन्दगानी..
और देखो न
फिर भी ,
मौत को देख सामने
गिडगिडाना पड़ ही गया
आखिर ,
ज़िन्दगी को
भीख में पाने के लिए .......!!
8 टिप्पणियां:
इस कविता में मुदिता जी ने यथार्थ को प्रतिबिम्बित या अभिव्यक्त भर नहीं किया है, एक गहरे और मार्मिक अर्थ में उसे 'रचा' है |
मुदिता जी,आपका दार्शनिक अंदाज मन
को मुदित करता है.
पर आपकी बेरुखी,उफ़! तौबा रे तौबा.
फिर भी आपके इंतजार में.
राम नाम जपते रहो जब लग घाट में प्रान
कभी तो दीन दयाल के भनक पड़ेगी कान
किन्तु
होता नहीं ग्राह्य
ऐसा कोई सन्देश
अहम् में डूबे
तानाशाहों को ..yahi sach hai aur ant me gidgidana
सत्य यही है कि तानाशाही का अंत कारुणिक ही होता है.. लेकिन अंधे धृतराष्ट की तरह सभी सम्राट अंधे हो जाते हैं ताकत के नशे में...
सत्य को उदघाटित करती शानदार रचना।
सच है ..
अच्छी अभिव्यक्ति !!
सुंदर अभिव्यक्ति....
नियति का खेल है ... अच्छी अभिव्यक्ति है ..
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