बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

कुदरती इश्क

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पाती हूँ आज़ाद मैं 
खुद को,
कुदरत के आगोश में ,
छाई है मदहोशी  ,
फिर भी,
होती हूँ मैं होश में ....

इश्क मिला है मुझको 
जैसे,
कोई तोहफा कुदरत का
ठंडक देती सबा हो 
या फिर ,
ताप सूर्य की फितरत का

इख्तियार कब है 
कुदरत पर ,
क्या देगी कितना देगी !
चाहत तेरी ,तुझे इश्क में
खलिश फ़कत 
दिल में देगी ...

इश्क कुदरती है उतना ही
जितनी हवा, 
धूप और बारिश ...
महसूस ही 
कर सकते हैं इसको,
मिले नहीं 
करके गुज़ारिश ...

बरस रहा है इश्क खुदा का
हर लम्हा ,
बस तू गाफ़िल ...
खोल दे मन के 
बंद दरवाज़े
सब कुछ फिर 
तुझको हासिल ........

3 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

कुदरती इश्क का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

वाह....बेहतरीन रचना...

नीरज

abhi ने कहा…

कितनी खूबसूरत बातें कही हैं आपने इस कविता में..वाह :) बहुत सुन्दर!!