'ये गर्म राख शरारों में ढल ना जाये कहीं "
दुष्यंत कुमार जी के इस मिसरे का प्रयोग करके लिखी गयी है यह तरही गज़ल ..आप सबका स्नेह मिलेगा ऐसी उम्मीद करती हूँ
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कुरेदो मत,बुझा अरमां मचल ना जाये कहीं
ये गर्म राख शरारों में ढल ना जाये कहीं
फरेब नींद को दे कर भी डर ये रहता है
मेरी नज़र में कोई ख़्वाब पल ना जाए कहीं
बना दिया है दीवाना मुझे जुनूं ने तेरे
जहां की सुनके कदम फिर संभल ना जाये कहीं
कि कर लूं बंदगी ,उस बुत की ,होके मैं काफ़िर
घड़ी ये इश्क की अबके भी टल ना जाए कहीं
यकीन कर तो लें ,ये इश्क एकतरफ़ा है
इसी यकीन पे ,ये दिल बहल ना जाये कहीं
बदन लिबास है, न कैद करना 'रूह' इसमें
के उसकी आग से ये जिस्म जल न जाए कहीं
6 टिप्पणियां:
मुदिता जी ..बहुत खूबसूरत!!कि कर लूं बंदगी ,उस बुत की ,होके मैं काफ़िरघड़ी ये इश्क की अबके भी टल ना जाए कहीं
बदन लिबास है, न कैद करना 'रूह' इसमें के उसकी आग से ये जिस्म जल न जाए कहीं ..
ये दोनों शेर बहुत अच्छे लगे...
यकीन कर तो लें ,ये इश्क एकतरफ़ा है
इसी यकीन पे ,ये दिल बहल ना जाये कहीं
बदन लिबास है, न कैद करना 'रूह' इसमें के उसकी आग से ये जिस्म जल न जाए कहीं
बहुत खूबसूरत गजल ! बहुत बहुत बधाई !
कर लूँ बंदगी उस बुत की होके मैं काफ़िर,
घड़ी ये इश्क़ की अबके भी टल ना जाये कहीं
बहुत सुंदर गज़ल
फरेब नींद को दे कर भी डर ये रहता है
मेरी नज़र में कोई ख़्वाब पल ना जाए कहीं
बहुत खूबसूरत गज़ल ..
मुदिता जी
सादर अभिवादन !
बदन लिबास है, न कैद करना 'रूह' इसमें के उसकी आग से ये जिस्म जल न जाए कहीं
बहुत ख़ूबसूरत लिखा आपने ! मुबारकबाद !
तमाम अश्'आर काबिले-तारीफ़ हैं ! हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
रक्षाबंधन एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ
-राजेन्द्र स्वर्णकार
bahut sunder rachna.
shubhkamnayen
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