शनिवार, 24 अप्रैल 2010

'जाज्वल्यमान'

उड़ जाता है
शिशु चिरौटा
अपने
पंख पसार,
ऊर्जा भर
नन्हे तन मन में
लक्ष्य है
विकास विस्तार....

पल पल में छवि
उभरे उसकी
जनक जननी
दुलराते,
जीवन का यह
सहज उपक्रम है
खुद को यूँ
बहलाते ...

डगमग होता ,
सहम भी उठता
लख लख
विस्तृत
नभ को
ले संबल
साहस का
किन्तु ,
विजित करेगा
जग को ....

कभी अतिउष्ण
सूर्य
दमकेगा ,
हो अंधड़ का
प्रचंड
प्रवाह,
हर बाधा से
पार तू पाए
पूरी करने
अपनी चाह....

दिल पर प्रस्तर
रख कर
माँ ने
दूर किया
आँचल से,
विह्वल
जनक के
नयन
अविचल है ,
जो सदा रहे
चंचल से....


क्षोभ
बिछोह ऐसे
सौद्श्य का
क्षण भंगुर
होता है..
बनता कुंदन
तप के सोना ,
'जाज्वल्यमान'
होता है ..

2 टिप्‍पणियां:

mridula pradhan ने कहा…

very good.

Avinash Chandra ने कहा…

adbhut...viraat kavitaa hai ye..
Bahut sse kahin jyada achchhi....exceptional hai ye.