शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

एक अदेखी डोर...


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है कैसा अनाम सा बन्धन
जुड़ कर पहुंचे यूँ स्पंदन
खींच रही मुझे तेरी ओर
एक अदेखी डोर....

जब जब चाहा
दूर हो जाऊँ
पास स्वयं के
तुझको पाऊँ
कैसे तुझसे
भाव छुपाऊँ
भीगी पलकों की कोर.....

प्रीतम आन बसे
हिय मेरे
बाकी सब
अनजाने चेहरे
हलचल दिल में
साँझ सवेरे
धड़कन करती शोर....

छाई थी
विरह रजनी काली
जगमग उजली
आयी दीवाली
सुबह की बेला
अरुणिम लाली
नाच उठा मन मोर....

नयन खुले
सुख-स्वप्न से जग कर
कलियों पर
मँडराते मधुकर
अलसायी किरणों से
सज कर
रची है मेरी भोर.....

होना जुदा
अब नहीं गवारा
सत्य भ्रम
सब हुआ विचारा
निश्चित शाश्वत
साथ हमारा
ओर नहीं कोई छोर
खींचे मुझको डोर.....

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