शनिवार, 30 जून 2012

सहज स्वीकार करूँ मैं....

क्षुधा, पिपासा 
जीवन अंग 
चलते जाएँ 
पल पल संग 
क्यूँ प्रतिकार करूँ मैं !
सहज स्वीकार करूँ मैं ......

कभी पिपासा 
तन की जगती, 
होता कभी 
मन है प्यासा ,
भिन्न भिन्न 
आधारों पर 
धरती कई रूप 
पिपासा.. 
स्पष्ट दृष्टि 
अवलोकन करके 
वैसा ही व्यवहार करूँ मैं......

मन की ,तन की 
और जीवन की ,
हैं उत्कट 
पिपासायें ,
कर देतीं 
बरबाद कभी 
कभी जगातीं  
जिज्ञासाएं ,
नश्वर क्या है 
जान सकूं 
शाश्वत यह साकार करूँ मैं .....

कौन हूँ मैं 
और 
मैं हूँ क्यूँ !
जिज्ञासा है 
बहुत सहज ,
पा लूं उद्गम स्रोत 
मैं अपना 
प्यास निरंतर 
यही महज 
तोड़ सकूँ 
प्रस्तर चट्टानें 
यूँ सशक्त प्रहार करूँ मैं ...
क्षुधा पिपासा जीवन अंग
सहज स्वीकार करूँ मैं.......

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