रविवार, 27 नवंबर 2011

कालजयी कृति....

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सर्द रातों के
सन्नाटे में
मंदिर की घंटियों सी
प्यालियों की खनक,
सौंधी सौंधी
पहचानी सी महक
और
गर्म चाय की
भाप के
मासूम बादलों के
दरमियाँ
गुजरतें हैं कितने ही
पन्ने लिखे गए
तुम्हारी कलम से,

पहुंचते हैं
मेरी नज़रों तक
हो कर तुम्हारे हाथों से,
उतर जाते हैं एहसास
गहराई तक
वुजूद में हमारे ..

मुकम्मल होती हैं
ना जाने कितनी
दास्तानें
जानी
अनजानी
और
संग अंजाम पर
पहुँचती रात के,
नए दिन के
आगाज़ पर
मनता है एक जश्न
और
होती है घटित
कोई कालजयी कृति....





3 टिप्‍पणियां:

अनुपमा पाठक ने कहा…

यूँ कालजयी कृतियाँ घटित होती रहें!
सुन्दर अभिव्यक्ति!

vandana gupta ने कहा…

सुन्दर रचना।

कुमार संतोष ने कहा…

हर्फ़ हर्फ़ खूबसूरत रचना !