योगेश्वर कृष्ण द्वारा तीनो गुणों के भिन्न प्रभाव बताने पर श्रीमद्भगवद्गीता के चौदहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में अर्जुन कृष्ण से पूछते है कि व्यक्ति इन त्रिगुण के प्रभाव से मुक्त हो गया है यह कैसे जाना जा सकता है ..उनके इस प्रश्न पर कृष्ण उनको उस व्यक्ति के आचार व्यवहार और इन त्रिगुणों से मुक्त होने के प्रभाव के बारे में बताते हैं ...
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अर्जुन बोले
बतलाओ लक्षण प्रभु ,जन होते जब त्रिगुण पार
कैसे घटित होता है यह ! क्या होता उनका आचार
बोले योगेश्वर
ज्ञान ,प्रवृति ,मोह की अति से ,जो करते नहीं द्वेष
नहीं प्राप्य यदि ,पाने की इच्छा भी नहीं विशेष
तटस्थ रहे सब गुणों से ,विचलित जो होता नहीं
त्रिगुण करते कार्य सब , ज्ञान यह खोता नहीं
सुख दुःख एक समान जिसे ,ढेल ,पत्थर सम स्वर्ण भी
निंदा-संस्तुति है सम जिसे ,है धीर, तुल्य अप्रिय-प्रिय सभी
नहीं भेद रिपु-मित्र में,सम जिसे मान-अपमान है
तजे हैं जिसने कृतित्वभिमान ,वो गुणातीत महान है
मेरी भक्ति करता है जो शुद्ध निश्छल हो कर मात्र
पार हो त्रिगुण से ,बन जाता ब्रह्म प्राप्ति का पात्र
क्यूंकि ,मुझमें ब्रह्म अवस्थित शाश्वत्य ,अमृत्य निराकार
अव्यय ,सुख और धर्म का हूँ मैं एकान्तिक सिद्धि आधार
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अर्जुन उवाच
कैर्लिगैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।।21।।
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति।।22।।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्ये योऽवतिष्ठति नेंगते।।23।।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकांचनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:।24।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।25।।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगने सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।26।।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।27।।
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अर्जुन बोले
बतलाओ लक्षण प्रभु ,जन होते जब त्रिगुण पार
कैसे घटित होता है यह ! क्या होता उनका आचार
बोले योगेश्वर
ज्ञान ,प्रवृति ,मोह की अति से ,जो करते नहीं द्वेष
नहीं प्राप्य यदि ,पाने की इच्छा भी नहीं विशेष
तटस्थ रहे सब गुणों से ,विचलित जो होता नहीं
त्रिगुण करते कार्य सब , ज्ञान यह खोता नहीं
सुख दुःख एक समान जिसे ,ढेल ,पत्थर सम स्वर्ण भी
निंदा-संस्तुति है सम जिसे ,है धीर, तुल्य अप्रिय-प्रिय सभी
नहीं भेद रिपु-मित्र में,सम जिसे मान-अपमान है
तजे हैं जिसने कृतित्वभिमान ,वो गुणातीत महान है
मेरी भक्ति करता है जो शुद्ध निश्छल हो कर मात्र
पार हो त्रिगुण से ,बन जाता ब्रह्म प्राप्ति का पात्र
क्यूंकि ,मुझमें ब्रह्म अवस्थित शाश्वत्य ,अमृत्य निराकार
अव्यय ,सुख और धर्म का हूँ मैं एकान्तिक सिद्धि आधार
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4 टिप्पणियां:
गहरे ,शुद्ध ,खूबसूरत एहसास अंतर्मन के -
बधाई -
achha laga janna
मुदिताजी ,आपकी पोस्ट दो तीन घंटे से पढ़ रहा हूँ.तृप्ति नहीं हो रही है.गीता भाव बहुत ही गंभीर है.आप के भाषांतर में भी वही भाव कायम हैं.
आप की कलम को ढेरों सलाम.
आपकी पुरानी पोस्टों में भी गीता कण ढूंढ रहा हूँ.संभवतः खज़ाना हाथ लग जाए.
उम्मीद है आप इसी तरह मेरे जैसे चातकों पर गीता वर्षा बरसाती रहेंगी.
तीनों गुणों से मुक्त होने के बाद व्यक्ति का क्या स्वरुप होता है , ये जानना अच्छा लगा । भागवद गीता का यह प्रसंग मन कों प्रेरणा और सुकून दे गया।
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