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कान्हा ही गर
ना समझे जो
व्यथा नैन के
नीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....
रह रह कसक
हृदय में उठती,
नयनन बरसे
अश्रु जल..
बाट जोहती
अँखियाँ थक गयी,
लगे बरस जैसा
हर पल...
कब तक लोगे
श्याम परीक्षा,
मूक प्रेम के
धीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की ....
अधिकार नहीं
जाना है
तुमपे,
है नहीं
मानिनी
राधा सी....
प्रेम किया
बस अर्पण उसने,
न तुम्हें
कभी कोई
बाधा दी....
तुम हो एक
बहता हुआ
दरिया,
संग रहे वो
तीर सी ...
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....
मीरा का
यह प्रेम
अनोखा,
दुनिया
जय जय
गान करे...
अमृत में
ढल जाता
प्याला,
मीरा
जब
विषपान करे...
हुई मुक्त वो
डूब प्रेम में,
खुली गाँठ
ज़ंजीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....
10 टिप्पणियां:
किससे कहे सुने बैरागन व्यथा ह्रदय की ..
बेहद खूबसूरत गीत ...
ह्रदय को छूता बहुत ही भावमय गीत्।
कान्हा ही गर
ना समझे जो
व्यथा नैन के
नीर की....
किससे कहे सुने
बैरागन
बात हृदय की
पीर की .....
is vyatha ko kaun samjhe , kaun jane !
मन की विवशता को बड़े सुन्दर ढंग से बताया है....प्यारी सी विरह कविता
इतनी कोमलकांत और अभिनव कविता के लिए आपको हार्दिक बधाई !
bahut sundar prastuti.....shubhakamnaaye
बहुत ही खूबसूरत गीत!!
अत्यंत सुन्दर एवं भावपूर्ण कृति. बहुत बहुत साधुवाद!
बहुत सुन्दर कविता , बधाई स्वीकार करे.
विजय
poemsofvijay.blogspot.com
कान्हा ही गर न समझे जो,
व्यथा नैन के नीर की;
किससे कहे-सुने बैरागन
बात हृदय की पीर की!
गीत का बहुत प्यारा मुखड़ा निकाला है आपने...लय- की प्रवहमानता भी इस मुखड़े में बख़ूबी निभा ले गयीं हैं आप...बधाई!
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