सहर होते ही टिक जाती हैं ये
दहलीज पर जा कर
तेरे पैग़ाम की कब से
रही हैं मुन्तज़िर नज़रें
किसी आहट ,किसी जुम्बिश से
हो जाता है दिल गाफ़िल
गली के छोर तक जा कर
पलट आती मेरी नज़रें
ए कासिद !अब तो आ पहुँचा दे
मुझ तक ,कुछ खबर उनकी
कि पथरा जाएँ ना यूँ
राह तकती हुई नज़रें
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छा लिखा है आपने. अंतिम पंक्ति में यदि "यूँ" की जगह "यूँ ही" करके पढ़ा जाय तो रवानगी अच्छी हो जाती है.
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