गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

भरोसा

माप दंड तूने गढ़े
निज के हृदय में
मान कर उनको
मुझ पे तेरा भरोसा ..

माप दंडों से पृथक
कुछ भी करूँ मैं
हो अव्यवस्थित
तू लगा देता
इल्ज़ाम मुझ पर
तोड़ देने का तेरा
नाज़ुक भरोसा........

है अहम् तेरा
भरोसे का जनक ही
तुष्ट ना हो वो
तो पाता है तू
खुद को छला सा
दुनिया भर के
तर्क कुतर्क
दे कर करता
साबित है तू
फिर अपराध मेरा

कर भरोसा
खुद पे पहले
दृष्टि को कर
अहम् मुक्त तू
है भरोसा
निज पे निज का
सत्य निश्चित
दूसरे को बाँध
कब फलता भरोसा ..

...