क्यूँ भटकते राह-ए-इश्क , झूठे वस्ल की चाह में
है तब्बसुम में तू मौला , तू ही तो हर आह में ....
दे रही जो ज़ख्म दुनिया उनसे क्या है वास्ता
मूँद लूं गर आँख तो पहुँचूं तेरी पनाह में .....
बुतपरस्ती लोग कहते हैं मोहब्बत को मेरी
जुड़ गया इक और कतरा मेरे बहर-ए-गुनाह में ....
संगदिल हैं लोग क्या समझेंगे मेरी आशिकी
फेर लेते मुंह ज़रूरतमंद से जो राह में ......
एक लम्हा भी बहुत है डूबने को इश्क में
ढूंढते हो क्या ना जाने इतने सालों माह में ......
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मायने (बुतपरस्ती-मूर्ती पूजा
बहर-ए-गुनाह - गुनाहों का समंदर
संगदिल-पत्थर दिल )
7 टिप्पणियां:
वाह !!
वाह
वाह! बेहतरीन!
बहुत ही सुंदर...
लाजवाब👌👌
बहुत सुंदर।
बहुत खूब, लाजवाब।
संगदिल हैं लोग क्या समझेंगे मेरी आशिकी
फेर लेते मुंह ज़रूरतमंद से जो राह में ......
बहुत खूब, बेहतरीन सृजन 🙏
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