बुधवार, 28 दिसंबर 2011

हो पाते तुम काश यहाँ !!

####

पर्वत पर हैं ठहरे बादल
खग पेड़ों पर रुके हुए
झील का ठहरा पानी कहता
हो पाते तुम काश यहाँ !

आसमान भी सूना सा है
बहते बहते थमी पवन
मूक धरा निश्चल हो कहती
हो पाते तुम काश यहाँ !

कण कण में गुंजार रही
हृदय कामना बिन बोली
मैं ही बस ये ना कह पाती
हो पाते तुम काश यहाँ !

नज़रें मेरी आतुर क्यूँ हैं
स्पर्श तेरा अनुभूत हृदय में
बसे हो मुझ में फिर क्यूँ चाहूँ
हो पाते तुम काश यहाँ !



मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

छाया की प्रतिछाया


भेद विभेद करा देते हैं
काल, नाम और ये काया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया

युगों युगों से जीते आये
जिस पावन 'अनाम' को हम
समय की सीमा लांघ लांघ वो
फिर फिर जीवन बन आया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया

आते जाते काले बादल
आंधी तूफां भी अक्सर
साथ ये सूरज जैसा अपना
कोई न विचलित कर पाया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया

साँसों में तेरी सांसें हैं
धड़कन में धड़कन तेरी
नहीं है मुझमें ऐसा कुछ भी
जहाँ नहीं तुझको पाया
छाया हो तुम ,प्रेम की मेरे
मैं छाया की प्रतिछाया



रविवार, 25 दिसंबर 2011

अस्मिता -(आशु रचना )

###

करते हैं हम
ना जाने
उपद्रव कितने ,
रखने को कायम
अपनी किसी
वैयक्तिक विशेषता को ,
समझ कर उसी को
अस्तित्व अपना

हो जाते हैं
हठधर्मी ,
करने को साबित
अपने छद्म व्यक्तित्व को,
करते हैं पोषण
ओढ़े हुए आवरणों का
परोसते हुए
दिखावटी दर्शन के
तर्कों और
युक्तियों को ...

नहीं होता भरोसा
जब हमें
अपनी अस्मिता का ,
हो जाते हैं विध्वंसकारी
चेष्टा में
स्वयं को श्रेष्ठ
साबित करने की ,
हीनता से भरे हुए
अंतर्मन के साथ
देते हैं धोखा
स्वयं को ,
अन्यों को भी ....

अस्मिता तो है
स्वाभाविक गुण हमारा,
सहज ,
सकारात्मक
और
दिव्य ,
नहीं आवश्यकता
किसी चेष्टा की
साबित करने हेतु
इसको ..

जीना होता है बस
प्रदूषणमुक्त हो कर
हमें
और
होती है प्रसरित
स्वयं ही
सुगंध इसकी ...

समाज
के बनाये
नाम ,
पद ,
और
रिश्तों के
मिथ्या आवरणों को
कायम रखने की
चेष्टा में
घुटने लगता है दम
हमारी अस्मिता का
और
बढ़ता जाता है
प्रदूषण ...

बढ़ने लगती हैं दूरियां
'मैं' ,'मेरा ' के
छद्म स्वंत्रतायुक्त
व्यक्तित्व की चाह में ..
जबकि
अस्मिता नहीं है
अलगाववादी
और हठधर्मी ,
यह तो है कोमल ,
स्त्रैण,
अनाक्रमक
और ग्राही ..

आओ ना !
गिरा कर
इन अवांछनीय
आवरणों को ,
प्रकट हों हम अपने
मूल स्वरुप में ,
जहाँ हैं हम
विशुद्ध
और प्रामाणिक ,
अविभक्त
उस परम अस्तित्व से ...
यही है पहचान हमारी
यही है अस्मिता हमारी ...!!!


शनिवार, 24 दिसंबर 2011

रूह में यूँ घुल गए तुम

######

रों रों से हो के गुज़रे ,रूह में यूँ घुल गए तुम
चाहत नहीं कोई भी, मुझको जो मिल गए तुम

राहें हुई हैं रौशन ,मंज़िल पुकारती है
बन कर चिराग दिल में मेरे जो जल गए तुम

काँटों से पार पाना आसां हुआ ए हमदम
गुलशन में मेरे जब से ,गुल हो के खिल गए तुम

अब गुम है होश मेरा ,बेखुदी होशमंद है
मेरे जाम-ए-ज़िन्दगी में ,मय बन के ढल गए तुम

महफूज़ हूँ मैं तेरी पलकों की चिलमनों में
जागी नज़र में मेरी ,ख्वाबों सा पल गए तुम

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

मिल कर बन जाते हैं ध्यान -अनुवाद



######

अनुशासन
और
विद्रोह
दो पहलू
एक ही सिक्के के,
समरूप तत्व
सदृश सत्व,
करते हैं
महसूस दोनों
एकसार
इश्वरत्व को

उभरते हैं
विभिन्न
प्रकटीकरण ,
साधुवाद
विभिन्न स्थितियों को
किया जाता है जिनका
भिन्न भिन्न
निर्वचन
भिन्न भिन्न
व्यक्तियों द्वारा ..

नहीं होता
तालमेल
दोनों ही के संग ,
पाखंड
औसतपन
और
दोगलेपन का,
उभरते हैं जो
समाज के
पंगु
मापदंडों के
कारण

होते हैं लालायित
दोनों ही
पाने को आलिंगन
अन्तरंग का ,
स्पर्श
बहिरंग का ,
और
अनुभूति
आकार
और तत्व
दोनों की ...

होता है
मिलन
हृदय और
मस्तिष्क का ,
पिघलते हैं
अस्तित्व
और
घुल जाती हैं
आत्माएं ..

विद्रोह और अनुशासन,
प्रत्येक
यदि एकल ,
करते हैं
सामना
कुंठाओं की
विपद का ,
और
होते हैं
जब संग ,
मिलकर दोनों
बन जाते हैं
ध्यान ...
Original write####

Discipline
And
Rebellion
Two sides of
The same coin,
Homogeneous basics
Analogous essence
Feels alike
Towards
Godliness.....

Different
Manifestations
Emerge
Thanks
Different
Situations
Differently interpreted
By different individuals...

Ill goes with both
Hypocrisy
Mediocrity
And
Double talk
Arising from
Lame scales
Of society.......

Craves both for
Caress of Inner
With
Touch of outer,
Feel of
Form and
Spirit as well...


Head and
Heart
Match,
Melt the
Beings,
Merge the
substances...

Rebellion
And
Discipline
Each alone
Runs risk of
Frustration,
Together
They
Become
Meditation....


by- Nazmaa Khan

आसमान

आसमान ...####

देखो ना!
कैसी फितरत है
आसमान की भी ...
कभी पसर जाता है
अपनी अंतहीन सीमाओं
के साथ
छोटी सी
एक छत की जगह
और
कभी !
असीम विस्तार को लिए
सिमट आता है
जैसे एक छत कोई ......!!!


बुधवार, 21 दिसंबर 2011

प्रबुद्ध या बुद्ध !

####

अपने अंतर का
आडोलन,
हर क्षण मानो हो
आन्दोलन ,

रत हैं हम सब
लड़ने जैसे
अनवरत
एक अपरिभाषित युद्ध ,
कोई नहीं
प्रतिपक्षी उसमें
है बस वह
स्वयं का
स्वयं विरुद्ध ,

हो ज्ञात जिस पल
सत्य सार्थक ,
गति पाता
जीवन प्रवाह
रहता जो
अकारण
अवरुद्ध ,
कुंठा मुक्त
मानव
हो सकता
सहज साक्षात्
प्रबुद्ध
या
बुद्ध !


सोमवार, 19 दिसंबर 2011

प्रेम,मित्रता और मैत्री ..

#######


प्रेम मात्र है बस एक सीढ़ी
मित्रता के द्वार तक
मित्रता भी है केवल पुल
मैत्री के विस्तार तक

बिना मित्रता प्रेम है नश्वर
अंत द्वेष में होता जिसका
ठगा हुआ महसूस सा करते
दोष ना जाने होता किसका

प्रेम ले जाता ऊपर जब भी
घटित मित्रता होने लगती
मित्रता भी उपर उठ कर
मैत्री में है खोने लगती

जड़ प्रेम है ,फूल मित्रता
मैत्री तो है शुद्ध सुगंध
प्रेम ,मित्रता में दो होते
मैत्री नहीं कोई सम्बन्ध

मैत्री है नभ सा विस्तार
होता घटित हृदय में अपने
नहीं है बंधन ,नहीं सीमाएं
सच होते से लगते सपने

रविवार, 18 दिसंबर 2011

प्रेम की दीपशिखा...

###

कठिन नहीं है
प्रेम को महसूस करना
होता है कठिन
किसी क्षण में
महसूस किये गए
प्रेम की
दीपशिखा को
जलाये रखना
और
उससे भी अधिक कठिन
उस लौ को
निरंतर
उज्जवल करना

होता है जिस क्षण प्रेम
शब्दों में परिवर्तित ,
कर लेता है
मस्तिष्क
अतिक्रमण हृदय का
और
मिलता है
मिथ्या प्रतिबिम्ब
प्रेम का
सुनी,
कही,
देखी ,
बातों के अनुरूप

उलझ जाते हैं
हम
मायाजाल में
आसक्ति
और
निर्भरता के
और होता है अंत
ऐसे प्रेम का
दुःख
और
हताशा में
आरोप -प्रत्यारोप में ...

हो कर
समाकलित ,
सुसंगत
और
संवेदनशील
न सिर्फ
जलाये रख सकते हैं
हम
अपने हृदय में
दीपशिखा प्रेम की
अपितु
कर सकते हैं
विस्तार
इसकी ज्योति का
कण कण में ....

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

बस मेरा सरमाया है....

#######

तेरे खत में सलाम आया है
एक भूला सा नाम आया है
खुशबू साँसों की तेरी है उसमें
तेरी नज़रों का जाम आया है

है क्यूँ रेशम सा कागज़ी टुकड़ा
बार बार चेहरे से छुआती हूँ
मेरे हाथों में जैसे हाथ तेरा
उंगलियाँ उसपे यूँ फिराती हूँ
कब लिखा जा सकेगा शब्दों में
अनकहा जो पयाम आया है
तेरे खत में सलाम आया है ...

तेरे हर्फों की जो ख़ामोशी है
गूंजती जा रही है धड़कन में
इश्क की राह में उतर लीं हैं
कितनी गहराइयां सनम हमने !
ज़िंदगी भर की खुशी दे दी है
खत तेरा ,बस मेरा सरमाया है
तेरे खत में सलाम आया है
एक भूला सा नाम आया है
खुशबू साँसों की तेरी है उसमें
तेरी नज़रों का जाम आया है ...

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

एक कविता ...

#######

हूँ मैं भी
एक कविता
रची गयी
उस सर्वोच्च रचनाकार की कलम से

जिसके हर लफ्ज़ में छुपे हैं
अनगिनत भाव ,
जिन्हें पढ़ने वाला
पढ़ता है
अपने ही आयाम दे कर
और रहता है इंतज़ार
रचना और रचयिता को
उस पाठक का जो
पढ़े ,
समझे और
अपना सके
रचना को
उसके निहित अर्थ में
उसकी समग्रता के साथ
टुकड़ों टुकड़ों
को जोड़ते हुए भी .....

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

एहसास.....

####

उठा कर
नींद की गोद से
उस सहर
भर लिया था
मुझे
अपने ही
साये ने
आगोश में
खुद के ,

खुलने से पहले ही
पलकों को
कर दिया था
बंद
नरम गरम
छुअन से
अपनी ,

पिघल गयी थी मैं
गुनगुनाती सी
घुल जाने को,
मोम की मानिंद,

ना जाने
घुला था
वो मुझमें
या कि
मैं उसमें,
पसर गयी थी
फ़िज़ा में
महक लोबान की'

मस्जिद से
गूंजी थी
अजान ,
और
मंदिर से
उठे थे स्वर
आरती के ,

फूल खिले थे
पत्ते थे सरसराये
कलरव किया था
पखेरुओं ने ,
गा रहा था जोगी
प्रभाती
कर रही थी मैं
बातें खुद से ,

या खुदा !!
मेरे मौला !!
ये एहसास था क्या
तेरे आ जाने का ?

रविवार, 11 दिसंबर 2011

'अनाम '

#####

सुना है
बेनाम ,बेशक्ल
होती हैं रूहें ,
फिर भी
ना जाने क्यूँ
होते हैं
यादों के धुंधलके में
चंद नाम ,
चंद चेहरे
अपने अपने से..
लगता है कोई क्यूँ
जन्मों से
खुद सा
पहली ही
मुलाकात में
और गूँज जाता है
कोई अनाम
यादों की गलियों में
जैसे
दे रहा हो
सदा
दूसरे छोर पर
खड़ा हुआ ..

बाँध लेती है
ना जाने कैसे
कोई अदृश्य डोर
अप्रत्याशित सी
घटनाओं को ,
पकड़ कर सिरा जिसका
चीर कर
अंधियारे को ,
करता हुआ पार
हर दूरी को
पहुँच ही जाता है
कोई
'मीत'
अपने 'मन' की
तहों में बसे
'अनाम' तक
और चल पड़ते हैं
'मनमीत '
संग संग
जानिब-ए-मंज़िल
एक नयी सहर का
आगाज़ लिए ..




शनिवार, 10 दिसंबर 2011

पहली करवट ....

पहली करवट ....######

हृदय में सोये
प्रभु की
पहली करवट
कराती है
एहसास
प्रेम का
जो होता है घटित
अन्तरंग में
और
होने लगता है
दृष्टव्य
बहिरंग में...

लगने लगता है
सब कुछ
स्वयं सा
अपना सा
होती है प्रवाहित
मुक्त धारा
जो सरसाती है
तन-मन को,
नज़र आती है
खुबसूरत
हर शै कुदरत की,
हो रहा होता है
बाहर जो ,
होता है वो
बस हमारा
अपना ही
प्रतिबिम्ब

खिंच आता है
कुछ ऐसा
जीवन में
जिससे
बढ़ जाती है
ऊर्जाएं
और
होता है घटित
सामर्थ्य
उस निराकार को
आकार देने का
स्व-हृदय में...

केवल जागरूकता
हमारी
करा सकती है
पहचान हमें
उस करवट की
उस अंगडाई की
उस अवसर की
लौटने के लिए
स्वयं की ही ओर ,
हमारे अंतर में
विराजित
परमात्मा की ओर ...,

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

कोई..!!

####

चुरा कर नींद
मेरी आँखों से
कैसे
सोया होगा कोई !
खयालों में
मुझे पा कर
मुझ में ही
खोया होगा कोई ...

तगाफ़ुल है
या बेज़ारी
पलट कर भी
ना देखा तो
मेरे दिल की
सदा पर
कर बहाना
सोया होगा कोई ..

ना मेरी आँख
मुंदती है
ना रहम-ए-नींद है
मुझ पर ,
कि कर महसूस
मेरी बेकली को
क्या
रोया होगा कोई !...

कटेगी रात
यूँ सारी ,
बस इक पैग़ाम की
चाह में ,
सहर होने तलक
एक लम्हा भी
ना
सोया होगा कोई ...

ना करना
तू शिकायत
मेरी आँखों की
उदासी की ,
कहेगी दास्तां वो भी
कि शब भर
रोया होगा कोई.....

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कृपा सिंधु


कृपा सिंधु ....
#####

गीता के सातवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥(७-११)

मैं काम (इच्छा) और राग से रहित बलवानों का बल हूँ. हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन) सब प्राणियों में मैं धर्म के अनुकूल रहने वाली लालसा हूँ. दूसरी पंक्ति को यदि ध्यान से देखें तो भगवान ने स्पष्ट किया है कि वे धर्मविरुद्ध कामों में शुमार नहीं है. हम अज्ञानी या हम में से आसुरी वृति के लोग, अमानवीय धर्म विरुद्ध कृत्यों को भी ईश्वर की मोहर लगा कर चलने का प्रयास करते हैं.
एक पंक्ति में कहें, तो इश्वरत्व सत्य, प्रेम और करुणा है...परमात्मा कभी भी इन के विरुद्ध जो भी होता है उसमें कत्तई शामिल नहीं. ये सब निहित स्वार्थों के अपने निर्वचन हैं.

इसी भावना को ध्यान में रखते हुए एक रचना का सृजन हुआ है ..आशा है बात पहुंचेगी ...



कृपा सिंधु .....####

परमात्मा तो है
सत्य
प्रेम
और करुणा,
कैसे हो सकते हैं
वे शुमार
धर्म विपरीत
कलापों में,
ईर्ष्या ,
द्वेष
और
अहंकार में ..

दिये हैं हमें
प्रभु ने
चेतना
विवेक,
भावनाएं,
संवेदनाएं
कर सकें
जिससे हम
संपादन
सतोगुणों का,
होते हुए साक्षी
मन में उत्पन्न
हर अच्छे बुरे विचार का


आसुरी प्रवृतियां
फोड़ती है ठीकरा
अपनी
नकारात्मकता का
शीश पर
प्रभु के,
अपने हर भाव को
उन्ही का दिया
बतलाते हुए
ले कर छद्म नाम
समर्पण का ..

ले लेते हैं जान
मासूमों की
कितने ही
विवेकशून्य मानव
ज़ेहाद
या
धर्मयुद्ध के नाम पर
करते हुए दावा
खुदा का फरमान,
ईश्वर की आज्ञा
मानने का..

कैसे हो सकता है
कोई भी कृत्य ,
बिम्ब
उस ईश तत्व का,
जो हो विपरीत
शाश्वत समग्रता के !
कैसे हो सकता है
कृपा सिन्धु
असत्य
अप्रेम
और
करुणा विहीन !

बुधवार, 30 नवंबर 2011

बेअल्फाज़

####

नींद की
अतल गहराईयों में,
झोंका खुशबुओं का
बना रहा था
दीवानी मुझको ,
जागी थी मैं
तेरे होने के
एहसास से,
हुए थे महसूस
कुछ बोल
सरकते हुए,
तेरे लबों से
और
सरगोशियाँ करते
उतर गए थे
तखलीक में मेरे
बन कर
एक ग़ज़ल ..

दोहराते हुए
अपने वजूद में ,
किया था निश्चय
कागज़ पर
उकेरने का उनको ,
और डूब गयी थी
फिर से
अँधेरी रात के
उजालों में,
ओढ़ कर
ओढ़ा कर
अपनी गुलाबी चादर,
लिए हुए
खुशनुमा एहसास
सृजकता का ....

ना जाने क्यों
दिन के उजाले के
साथ ही
खो गए हैं
वो अलफ़ाज़
जो संजोये थे
आधी नींद में
ना जाने
किस कलम से !!

जिया था शिद्दत से
जिसको
रात की बेखुदी में ,
जिए जा रही हूँ मैं
हर नफ़स
उसी ग़ज़ल को ,
करते हुए
एक नाकामयाब सी
कोशिश
बज़रिये कलम
कागज़ पर
समेटने की उसको


करो ना महसूस
ए हमदम !
गूंज रही है
इस ख़ामोशी में
मौसिकी
उस ग़ज़ल की
उतरी थी जो
तुम्हारे लबों से
वजूद में मेरे
हो कर फ़क़त
बेअल्फाज़ !


तखलीक-सृजन





रविवार, 27 नवंबर 2011

कालजयी कृति....

######

सर्द रातों के
सन्नाटे में
मंदिर की घंटियों सी
प्यालियों की खनक,
सौंधी सौंधी
पहचानी सी महक
और
गर्म चाय की
भाप के
मासूम बादलों के
दरमियाँ
गुजरतें हैं कितने ही
पन्ने लिखे गए
तुम्हारी कलम से,

पहुंचते हैं
मेरी नज़रों तक
हो कर तुम्हारे हाथों से,
उतर जाते हैं एहसास
गहराई तक
वुजूद में हमारे ..

मुकम्मल होती हैं
ना जाने कितनी
दास्तानें
जानी
अनजानी
और
संग अंजाम पर
पहुँचती रात के,
नए दिन के
आगाज़ पर
मनता है एक जश्न
और
होती है घटित
कोई कालजयी कृति....





शनिवार, 26 नवंबर 2011

करामात ...

चलती नहीं कलम 
ना जाने क्या बात है, 
हैं विलुप्त शब्द सारे 
भावों की बस बरसात है....

कैसे समा लूँ ,बोल !
सीमित शब्दों में धारा को,
तड़पती रूह है मेरी
कि तोडूं तन की कारा को,
बिखेरूं आज कण कण में
मिला जो मुझको तेरे साथ है....

ना जाने कब मिले थे हम
ना जाने कब के बिछुड़े है ,
पहचाना रूह ने रूह को
भले ही बदले जो कपडे हैं
हम जन्मों से  वे ही संगी
कुदरत की ही करामात है

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

अनासक्त प्रेम



समझ कर
मेरे प्रेम को
आसक्ति ,
समझ लेते हो
मेरी अनासक्ति को
विरक्ति मेरी
और
डोलते रहते हो
आसक्ति
और
विरक्ति के
इन दो ध्रुवों के मध्य
पेंडुलम की भांति

जबकि !
होती हूँ मैं
सदैव स्थिर
अपने अनासक्त प्रेम में ,
स्वयं प्रेम हो कर

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

रहस्यमयी



कभी होता है रहस्य
मेरी खनकती हंसी में ,
तो हो जाता है
रहस्यमय
कभी मौन भी मेरा

कभी कोई पूछने
लगता है रहस्य
मेरे ना हंसने का
और कोई
ढूँढने लगता है सिरा
मेरे अनवरत बोलने के
सिलसिले का ...

पूछा है कभी क्या
बूंदों से ,बारिश की
क्यूँ बजती हैं
घुंघरुओं की तरह !!
या
क्या फुसफुसा जाती है
हवा चुपके से
पत्तों के कानों में !!
और
क्यूँ हो जाती है
अकस्मात शांत ,गंभीर
वो कल कल करती
उन्मादित ,
वाचाल नदिया !!

कर लो न
स्वीकार ,
मेरा मौन ,
मेरी हंसी ,
मेरे आंसू
और
मेरी बातें
सभी हो सकते हैं
निरर्थक ,
निरूद्देश्य
किन्तु
सहज
स्वयं के ही आनंद में
बिलकुल जैसे ये प्रकृति ...

हूँ ना मैं भी तो
रहस्यमयी
इस प्रकृति की ही तरह ..!!!

सोमवार, 14 नवंबर 2011

वो नखलिस्तान ....


###

सुबह की
किरणों के
नर्म एहसास में
होती है जब
तेरे पैग़ाम की
उम्मीद ,
करता है दिल
हर सहर का
इस्तकबाल
हो कर
शादमां
संग 
नयी 
तवानाई के

आँख खुलने के
साथ ही
तेरे पयाम की
नाउम्मीदी
दे जाती है
उदासियाँ मुझको
एक और नए
सहरा से
कुशादा दिन को
अनजाने से
नखलिस्तान की
खोज में
यूँही गुज़ार देने का
एहसास लिए ...

क्यूँ भूल जाती हूँ
उस लम्हा मैं
कि पोशीदा है
वो
नखलिस्तान तो
मेरे ही अंदर
मेरी ही रूह में
अज़ल से-
अबद तक !!!!


मायने -
इस्तकबाल-स्वागत 

शादमां -खुश ,प्रसन्नचित

तवानाई-शक्ति और सामर्थ्य
सहरा-रेगिस्तान

कुशादा-फैला हुआ ,विस्तृत

नखलिस्तान -oasis

पोशीदा -छुपा हुआ

अज़ल-सृष्टि का आरम्भ ,अनंतकाल

अबद-अनंत काल

रविवार, 13 नवंबर 2011

ऐसा कुछ है नहीं कि उम्र भर रोया जाये


कितने दिन दिल को ग़मों में यूँ डुबोया जाये 
ऐसा कुछ है नहीं के उम्र भर रोया जाए 

बेसबब अश्क बहा कर , इन्हें  बरबाद ना कर 
मोल इनका है गर ज़ख्मे ग़ैर को धोया जाए 

खुशियाँ बिखरी हैं हर सिम्त  न रह अब गाफ़िल 
होशमंद हो इन्हें लम्हों   में पिरोया जाए 

बेगानी हक़ीक़त सही , हैं ख़्वाब तो अपने 
तेरे शाने पे हो सर ,चैन से सोया जाए 

वक़्त आने पे मिलेगा ,मुकद्दर में लिखा भी 
ज़मीने ख़्वाब पे तदबीर का बीज तो बोया जाए 

शनिवार, 12 नवंबर 2011

काश ऐसा तेरा नज़रिया हो ..



पिघल जाती है दूर
पहाड़ों पर बर्फ
चाय की प्याली से
उठती भाप की
गर्माहट से ,
दूरियां ही
शायद
इस आगोश का
ज़रिया हो ...

उठते हैं
तूफ़ान
चाय की प्याली में
देखो ना ,
मिटटी का
यह बर्तन
मानो
कोई दरिया हो ...

खयाल है मुझे
तेरी
तलब-ओ-जरूरियात का
मेरे हमदम ..
काश ऐसा
तेरा नज़रिया हो ....













बुधवार, 9 नवंबर 2011

दर्द

न वाबस्ता रहा
जिस दर्द से
कभी
दिल ये मेरा ,
वो मेरी नज़्मों के
हर लफ्ज़ में
नज़र आता है.....

हूँ शुक्रगुज़ार तेरी ,
मुझको
भुलाने वाले ,
कि यही दर्द तो
गज़लों में
असर लाता है.....

सोमवार, 7 नवंबर 2011

मेरा वजूद भी तुम हो

###########

मेरा वजूद भी तुम हो ,
मेरा खयाल भी तुम...
निगाह-ए-नाज़ भी तुम हो ,
रौनक-ए-जमाल भी तुम ..

उलझते हो कभी ,जुल्फों के
पेंच-ओ- ख़म बन कर
छलक भी पड़ते हो नज़रों में
जाम-ए-ग़म बन कर
सुकून होते हो दिल का
मेरा ज़लाल * भी तुम
मेरा वजूद भी तुम हो
मेरा खयाल भी तुम ..
(ज़लाल=क्रोध)

हुआ करते हो सदा साथ
बेआवाज़ क़दमों से
गुंजार देते हो धड़कन को
अपने नगमों से
मेरी हंसी में हो बसते ,
मेरा मलाल भी तुम ..
मेरा वजूद भी तुम हो ,
मेरा खयाल भी तुम...

जियूं मैं प्यार के शिकवे ,
शिकायतें तेरी ,
हैं  मेरी जान ये भी तो
इनायतें तेरी
छुपा जवाब हो मुझमें,
मेरा सवाल भी तुम ..
मेरा वजूद भी तुम हो ,
मेरा खयाल भी तुम...

है तेरा साथ तो
रोशन सभी फिजायें हैं
बहारें महकी हुई
दम तोड़ती खिजाएँ हैं
मेरी तारीकी-ए-शब हो
मेरा जलाल* भी तुम
मेरा वजूद भी तुम हो
मेरा खयाल भी तुम ..
(जलाल-तेज,प्रताप )

जुदा से दिखते हैं दो तन
निगाह-ए-दुनिया में
मगर वाबस्ता नहीं रूह
अहल-ए- दुनिया से
तुम्ही हो हिज्र में शामिल
मेरा विसाल भी तुम
मेरा वजूद भी तुम हो
मेरा खयाल भी तुम ..





बुधवार, 2 नवंबर 2011

शून्यता

प्रकाश ,
मिल कर सात रंगों से
दिखता है रंगविहीन ,
अवस्था शून्यता की
होती है घटित
शायद इसी तरह से ...

विद्यमान होते हुए भी
हर रंग के
दिखता है
सिर्फ
शुभ्र ,श्वेत प्रकाश
अपने शाश्वत स्वरुप में
नहीं मिलता जब तक
बाहरी कारक उसको
और
गुज़रते ही
अनुकूल माध्यम से
खिल जाता है
हर एक रंग
हो कर
परावर्तित

नहीं है सम्पूर्ण
इन्द्रधनुष
किसी भी
एक रंग की
अनुपस्थिति से .
चाहे तीव्रता हो
लाल रंग की
या फिर
असीम शान्ति
नीले रंग की ..

होती है महत्ता
हर रंग की
साथ उसकी पूर्णता के
रहते हुए
प्रकाश के
अस्तित्व में भी
और
उसकी शून्यता में भी ...

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

नियति ...



गद्दाफी के अंत और उसके सरकारी सैनिकों के सामने " मुझे गोली मत मारो " कह कर गिडगिडाने को पढ़ कर उत्पन्न हुए भावों को शब्द दिए हैं .... आशा है बात पहुंचेगी शब्दों के नाध्यम से ...

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दिया था सन्देश
सिकंदर महान ने
होने पर बोध
अपनी लालसाओं की
व्यर्थता का ,
दिखा कर खाली हाथ
जाते हुए इस दुनिया से..

किन्तु
होता नहीं ग्राह्य
ऐसा कोई सन्देश
अहम् में डूबे
तानाशाहों को ..

समझ के नियंता
खुद को
अन्य ज़िंदगियों का ,
करते रहे
मनमानी,
छीनते रहे
ज़िन्दगानी..

और देखो न
फिर भी ,
मौत को देख सामने
गिडगिडाना पड़ ही गया
आखिर ,
ज़िन्दगी को
भीख में पाने के लिए .......!!

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

नामलेवा



माँगा होगा ना
कितनी मन्नतों से
बेटा तुमने !!
होने को
नामलेवा कोई
तुम्हारे बाद भी !

लेकिन..!

देख लो माँ
और बता देना
पापा को भी ..

किया था न्योछावर
अपना सब कुछ ,
उस बेटे की
जिस संतान पर ,
उसके जन्म से
अपनी मृत्यु तक ,
आज ,
उसी के
विवाह के
निमंत्रण पत्र में
नाम भी नहीं है तुम्हारा ...

नहीं रहा न कोई नामलेवा तुम दोनों का ..
बाद तुम्हारे ....!!!!

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

कुदरती इश्क

########

पाती हूँ आज़ाद मैं 
खुद को,
कुदरत के आगोश में ,
छाई है मदहोशी  ,
फिर भी,
होती हूँ मैं होश में ....

इश्क मिला है मुझको 
जैसे,
कोई तोहफा कुदरत का
ठंडक देती सबा हो 
या फिर ,
ताप सूर्य की फितरत का

इख्तियार कब है 
कुदरत पर ,
क्या देगी कितना देगी !
चाहत तेरी ,तुझे इश्क में
खलिश फ़कत 
दिल में देगी ...

इश्क कुदरती है उतना ही
जितनी हवा, 
धूप और बारिश ...
महसूस ही 
कर सकते हैं इसको,
मिले नहीं 
करके गुज़ारिश ...

बरस रहा है इश्क खुदा का
हर लम्हा ,
बस तू गाफ़िल ...
खोल दे मन के 
बंद दरवाज़े
सब कुछ फिर 
तुझको हासिल ........

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

दीपक



लगातार जल जल कर दीपक ,हो गया महत्वहीन
सहज प्रेम अपनों का फिर भी , न पाया वो दीन

घर को रोशन करता फिर भी ,धरम निभाता अपना
क्षीण थी बाती,तेल शून्य था,ज्योति बन गयी सपना

तभी कोई अनजान मुसाफिर , छू गया सत्व दीपक का
भभक उठी वह मरणासन्न लौ,भर गया तेल जीवन का

हृदय व् मन का कोना कोना ,ज्योति से तब हुआ प्रकाशित
दीपक में किसकी बाती है,तेल है किसका,सब अपरिभाषित

निमित्त बना कोई ज्योति का,फैला चहुँ ओर उजियारा
यही सत्य है, दूर करो सब, मेरे तेरे का अँधियारा

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

नहीं है संभव ...


तुम्हारी कल्पनाओं की 
वीभत्स उड़ान को 
झुठलाने में ,
ज़ाया नहीं करनी मुझे 
स्वयं की ऊर्जा ,
जो होती है सहयोगी 
मेरी सुन्दरतम उड़ानों में ...

नकारुं भी तो उसे 
जिसका अस्तित्व
नहीं है कहीं 
सिवाय तुम्हारी
गढ़ी हुई 
सोचों में होने के ..

समझ लो 
मेरे मौन को 
स्वीकृति 
तुम्हारे आक्षेपों की भले ही ..
किन्तु !!
प्रेम की वेदी पर, 
अविश्वास की अग्नि में 
उतर कर 
संभव नहीं है 
साबित करना स्वयं को 
तुम्हारे मानकों के अनुसार.. 

और ,
साबित कर भी लिया
आज ,
तो 
कल 
फिर किसी बात पर 
धधक उठेगी यह ज्वाला 
जो सतत सुलगती है 
अंतर्मन में तुम्हारे ...

इसलिए ..
हे मर्यादित पुरुष !
अपनी मर्यादाओं के 
मापदंडों को ढोते हुए 
बने रह सकते हो तुम 
'राम "
सदियों तक भले ही ..
किन्तु !
नहीं है संभव 
एक क्षण भी, 
उस बोझ तले ,
सीता बनना 
अब मेरे लिए ...

नहीं है संभव 
सीता बनना 
अब मेरे लिए ...!!!!!!

बुधवार, 7 सितंबर 2011

सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी (तरही गज़ल )


मिसरा -ज़रा सी चीज़ घबराहट में ना जाने कहाँ रख दी -आरज़ू लखनवी
#########

नज़र की ताब अपनी ,मैंने सू-ए-आसमां रख दी
छुपा कर अब्र में लेकिन ,किसी ने आंधियाँ रख दीं

छुपाया ख़्वाब जो जग से ,उसे फिर जी नहीं पाए
ज़रा सी चीज़ घबराहट में ना जाने कहाँ रख दी

पलों का साथ मिलना ,साथ बहना फिर जुदा होना
खुदा ने क्यूँ सफ़र में मेरे , बस तन्हाइयां रख दीं

हिलाए न थे तुमने लब , न मैंने ही ज़ुबां खोली
घुटन न जाने किन लफ्ज़ों ने अपने दरमियाँ रख दी!

लगाये फूल बगिया में , था अश्कों से उन्हें सींचा
खिज़ा ,लेकिन मेरी किस्मत ने ,मेरे गुलसितां रख दी

इशारों ही इशारों में ,बयाँ  कर डाला हाल-ए-दिल
सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी

सोमवार, 5 सितंबर 2011

स्वतंत्रता ...

####

नहीं होता है
यदि
सहज विश्वास
किसी को
मुझ पर
तो नहीं है जरूरत
मुझे
उसे बनाने का
प्रयत्न करने की
क्यूंकि ..!!
नहीं खो सकती मैं ,
जीवन को
जीने की
स्वतंत्रता ,
हर पल
उस बनाये हुए
विश्वास के
टूट जाने के
भय में .....

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

"अप्पो दिपो भव : "

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लग सकती है
छलांग
आध्यात्म में 

डूब कर
वियोग की गहराई में
या
पा कर
मिलन की ऊंचाई को
होती है जहां
ध्यान की प्रक्रिया
घटित ,
स्वयं को पहचान कर
किन्तु !!
लेना होगा
हर कदम
परिपूर्ण सजगता से
हमको ,
दोनों ही तरफ़
ले जाती हुई
पगडंडियों पर ...
घिरी होती हैं जो
अनजान ,
अँधेरी ,
खाईयों से ,
संभव है तभी
"अप्पो दिपो भव:"
का फलीभूत होना ....

रविवार, 28 अगस्त 2011

वक्त....

देखो..!
समझो..!
जानो ..!
और मानो...!!

नहीं है वक़्त से
बड़ा हिसाबी
कर्मों का कोई ...
दे देता है सजा
वह ,
खुद के
इस क्षण को
बर्बाद
करने वालों को,
हो कर
अप्राप्य उन्हें
अगले ही क्षण .....!!






रविवार, 21 अगस्त 2011

बन मेघ प्रेम का हो छाये ...

बैरागन से प्रीत निभाने
साजन तुम जब से आये
तृषित धरा की प्यास बुझाने
बन मेघ प्रेम का हो छाये

ना जाने कैसा नाता है
हृदय बहा ही जाता है
मेरे गीतों में डूब गए
मुझको ,मुझसे ही लूट गए
साँसे दे कर मेरी नज़्मों को
तुम दबे पाँव दिल में आये
बन मेघ प्रेम का हो छाये ...

पा प्रेम तेरा इतराऊं मैं
रहूँ कहीं , कहीं भी जाऊं मैं
एहसास तेरा है साथ मेरे
हैं हाथों में अब हाथ तेरे
अपने होने का अर्थ मिला
जब देख मुझे तुम मुस्काए
बन मेघ प्रेम का हो छाये ....

कण कण में प्रेम की धारा है
महका ज्यूँ उपवन सारा है
है रूप इसी का तो भक्ति
देखो ना प्रेम की ये शक्ति
हो पार सभी व्यवधानों से
हम इक दूजे में घुल पाए
बन मेघ प्रेम का हो छाये

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

बदन लिबास है ..(तरही गज़ल )

'ये गर्म राख शरारों में ढल ना जाये कहीं "

दुष्यंत कुमार जी के इस मिसरे का प्रयोग करके लिखी गयी है यह तरही गज़ल ..आप सबका स्नेह मिलेगा ऐसी उम्मीद करती हूँ


#######

कुरेदो मत,बुझा अरमां मचल ना जाये कहीं

ये गर्म राख शरारों में ढल ना जाये कहीं


फरेब नींद को दे कर भी डर ये रहता है

मेरी नज़र में कोई ख़्वाब पल ना जाए कहीं


बना दिया है दीवाना मुझे जुनूं ने तेरे

जहां की सुनके कदम फिर संभल ना जाये कहीं


कि कर लूं बंदगी ,उस बुत की ,होके मैं काफ़िर

घड़ी ये इश्क की अबके भी टल ना जाए कहीं


यकीन कर तो लें ,ये इश्क एकतरफ़ा है

इसी यकीन पे ,ये दिल बहल ना जाये कहीं


बदन लिबास है, न कैद करना 'रूह' इसमें

के उसकी आग से ये जिस्म जल न जाए कहीं


मंगलवार, 26 जुलाई 2011

उड़ गयी बुलबुल...

करीब करीब २ महीने साथ रह कर मेरी बिटिया पिछले हफ्ते अपने कॉलेज चली गयी ....सूने घर को दकेह कर जो एहसास उभरे उन्हें कलमबद्ध करने कि कोशिश की है ...

#########

उड़ गयी बुलबुल हौले से यूँ
चहक बसी है मेरे मन में
कर गयी सूना, मेरा घोंसला
मौन पसर गया ज्यूँ बन में ..

हंसी से उसकी खिल उठता है
मेरे मन का हर इक कोना
जीती हूँ उसके यौवन में
अपने ही जीवन का सपना
उसके लिए सितारे कितने
जगमग करते हैं अंखियन में
उड़ गयी बुलबुल हौले से यूँ
चहक बसी है मेरे मन में .

सूना आँगन ,सूनी गलियाँ
उसके साथ की याद दिलाएं
भीगी आँखों के मोतियन
अधरों पर मुस्कान सजाएं
क्षणिक कष्ट भी ना हो उसको
दुआ बसी मेरे अँसुवन में
उड़ गयी बुलबुल हौले से यूँ
चहक बसी है मेरे मन में

मेरे मन को जाना- समझा
बन कर उसने कोई सहेली
यही कामना ,नहीं हो जीवन
उसके लिए अबूझ पहेली
खुशियों से भर जाए झोली
रहे क्षोभ ना कुछ जीवन में
उड़ गयी बुलबुल हौले से यूँ
चहक बसी है मेरे मन में

बुधवार, 20 जुलाई 2011

यूँ लगे है खुदा मिला हमको ....

दर्द माज़ी के कहाँ मिटते हैं
वक्त-बे-वक्त ज़ख्म रिसते हैं

तेरी यादें पिरो के लफ़्ज़ों में
गीत हम फिर वफ़ा के लिखते हैं

अब हदें कुछ नज़र नहीं आतीं
हर तरफ़ आसमान दिखते हैं

तेरे आने की है खबर शायद
गुल चमन में भी आज खिलते हैं

मोल है सिर्फ तभी अश्कों का
तेरे शाने पे जब ये गिरते हैं

अनकही बात कह गयी नज़रें
क्यूँ लबों को अब आप सिलते हैं

यूँ लगे है खुदा मिला हमको
जब कभी हम से आप मिलते हैं

रविवार, 17 जुलाई 2011

कब नदिया प्रीत निभाना जाने !! (आशु रचना )

######

कब नदिया प्रीत निभाना जाने !
हर पल बस अविरल बहना जाने ...
कब नदिया प्रीत निभाना जाने !!

हो जाए शुष्क कभी सूर्य रोष से...
भर जाए कभी फिर अब्र जोश से...
बाँध लगा दे मानव फिर भी
जगह बना कर रिसना जाने
कब नदिया प्रीत निभाना जाने !

शीतल ,सरल ,सलिल की धारा
हो जाए प्रचण्ड लीले जग सारा
मानव के कर्मों के फल का
दोष भी खुद पर सहना जाने
कब नदिया प्रीत निभाना जाने ..!!

नहीं है रुकना ,नहीं अटकना
चाह नहीं ,ना गिला ही करना
राह में मिलते पथिकों की ये
उत्तप्त प्यास बुझाना जाने
कब नदिया प्रीत निभाना जाने !!!


सोमवार, 4 जुलाई 2011

'रूह ' को जानना नहीं आसां-(तरही गज़ल )


तू मुझे आजमाएगा कब तक - शायर मोमिन खान मोमिन का कहा यह मिसरा इस तरही गज़ल का आधार है


#########

तू मुझे आज़मायेगा कब तक !
रस्म-ए-दुनिया ,निभाएगा कब तक !

छीन कर ख़्वाब, मेरी पलकों से
अपनी नींदें , सजाएगा कब तक !

यूँ उठा कर वज़न गुनाहों का
ज़िन्दगी को ,दबाएगा कब तक !

मेरी हर इक वफ़ा पे मेरा नसीब
तंज़ करके ,रुलाएगा कब तक !

ख़ाक हो जाएँ उसकी चाहत में
इस तरह वो सताएगा कब तक !!

जोड़ सकते नहीं दिलों को कभी
ऐसे रिश्ते ,निभाएगा कब तक !!

मयकशी है नज़र की जानिब से
जाम झूठे ,पिलाएगा कब तक !

'रूह ' को जानना नहीं आसां
राज़ ये,दिल बताएगा कब तक !!


बुधवार, 29 जून 2011

नहीं घुटेगा फिर ये प्रेम

आकांक्षा ,
अपेक्षा ,
अनुग्रह ,
अधिकार ...
जकड़ लेते हैं
मन को ,
घुट जाता है
प्रेम ..

हो कर जीना
सहज ,
सरल ..
नदिया सा
हो जाओ
तरल ...
छिपा है
प्रकृति के
कण कण में
सीखो उससे
बिछोह और नेह ..
नहीं घुटेगा
फिर ये प्रेम .

नहीं घुटेगा
फिर ये प्रेम ..

सोमवार, 27 जून 2011

बरस रहा घनघोर ..

#####

नभ आतुर,मिलने धरती से
बरस रहा घनघोर,
जली विरह में वसुधा कितनी
उत्प्लावन चहुँ ओर

सूरज ने था बहुत सताया
कोमल भावों को झुलसाया
धीर धरा सा गर हो मन में,
नहीं चले कभी कोई जोर

निशा अँधेरी जब भी आई
घोर मलिनता मन पर छाई
प्रेम बन गया आस का दीपक
जगती रही हर भोर.

सदियाँ बीती मिलन को अपने
फिर से सजने लगे हैं सपने
शब्दों के गिर गए आवरण
मौन में बदला शोर,
नभ आतुर,मिलने धरती से
बरस रहा घनघोर,
जली विरह में वसुधा कितनी
उत्प्लावन चहुँ ओर

शुक्रवार, 24 जून 2011

मीरा दीवानी हो गयी....(तरही गज़ल )

जो सुनी , देखी ना जानी ,वो कहानी हो गयी
तुमसे नज़रें क्या मिलीं,धड़कन रूहानी हो गयी

बात कितनी कह दी हमने ,और उसने सुन भी ली
गुफ़्तगू में दो दिलों की ,बेज़ुबानी हो गयी

भेद क्या है प्यार में ,साकार का ,निराकार का
कृष्ण की चाहत में जब ,मीरा दीवानी हो गयी

रक्स उसकी चाल में , आँखों में पैमाने भरे
देख कर उसको खिजां में गुलफ़िशानी हो गयी

हो जुदा नेमत से तेरी ,'मैं' ही मैं करता रहा
मिट गया वो जिसपे तेरी मेहरबानी हो गयी

सोमवार, 20 जून 2011

वो मंद मंद मुस्काता है....

पाना, खोना हँसना ,रोना
है भ्रम हमारी दृष्टि का
वो मंद मंद मुस्काता है,
सब खेल रचा कर सृष्टि का .....

कब मिलन हुआ ,कब बिछुड़े हम,
क्यूँ याद रखें ,क्यूँ करना ग़म !
जिस पल बरसा बादल कोई ,
बस वही समय है वृष्टि का ...
वो मंद मंद मुस्काता है,
सब खेल रचा कर सृष्टि का .....

बीते अनुभव पर अटक गए ,
यूँ नयी दिशायें भटक गए
बिन खुले कभी क्या जान सका
कोई राज़ कभी ,बंद मुष्टि का !!!
वो मंद मंद मुस्काता है,
सब खेल रचा कर सृष्टि का .....

पाना, खोना हँसना ,रोना
है भ्रम हमारी दृष्टि का !

आकाश...(आशु रचना )



###

असीम विस्तार है
आकाश का ,
जानती हूँ !
मेरी दृष्टि की
सीमाओं से परे..
किन्तु ,
मेरे
एहसासों की
उड़ान
के लिए
पर्याप्त है
आकाश
हृदय का
तुम्हारे ...
थक कर
सिमट आने को
ज़मीं भी तो
दिल की
दिलाती है न
अपने होने का यकीं
उनको ...!!

शनिवार, 18 जून 2011

जो तुम न बोले बात प्रिय .....



####

दृष्टि से ओझल तुम किन्तु
हो हर पल मेरे साथ प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ...

हृदय मेरा स्पंदित है
इन एहसासों की भाषा से
हो चले हैं हम अब दूर बहुत
हर दुनियावी परिभाषा से
नहीं मलिन कभी हैं मन अपने
दिन हो अब चाहे रात प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ......

भँवरे के चुम्बन से जैसे
बन फूल ,कली मुस्काती है
आ कर दीपक आलिंगन में
बाती जैसे इठलाती है
ऐसे ही छुअन तुम्हारी से
खिल जाता मेरा गात प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ....

तुमने कब दूर किया खुद से
मैं भी कब हुई अकेली थी
धड़कन ,साँसों में कौन बसा
उलझी ये बड़ी पहेली थी
इस प्रेम की बाजी में अपनी
न शह है न ही मात प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ...

गुरुवार, 16 जून 2011

आज कल पाँव ज़मीं पर...



####

हथेलियों में
भर कर
चूमा है
जबसे तुमने
पाँवों को मेरे ,
कहते हुए
उनको
जोड़ा हंसों का ,
रखा नहीं है
धरती पर
एक पग भी मैंने ..
कैसे मलिन कर दूं
छाप
होठों की
तुम्हारे ..

बोलो !
देखा है ना
तभी से
तुमने मुझे
उड़ते हुए .....



मंगलवार, 14 जून 2011

हिज्र का बहाना कोई !!

#####

यूँ तो
फुर्सत नहीं
सुनने को
जहां की बातें ..
ज़िक्र तेरा
मगर
ये वक़्त
रुका देता है ..
नाम सुनते ही
तेरा
कांपने लगते हैं
ये लब ,
इक तसव्वुर
तेरा
पलकों को
झुका देता है ...

मैं कहूँ भी तो
कहूं कैसे
मेरा
हाल-ए- जिगर ,
इश्क
तुझसे ये मेरा,
हो ना
फ़साना कोई ...
कोशिशें
वस्ल की
करने में
सनम ,
मिल ना जाए
कहीं ,
हिज्र का
बहाना कोई ....

मिल ना जाए
कहीं ,
हिज्र का
बहाना कोई ...!!!!

बुधवार, 8 जून 2011

पूर्ण समर्पण मेरा था ....

########

वेगवान वो लहर थी जिसमें
पूर्ण समर्पण मेरा था ...
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था ...

..
बह निकले तुम फिर संग मेरे ,
उन्मादित धारा में डूब उतर ..
यूं लगा मिटे थे द्वैत सभी
हस्ती निज की थी गयी बिसर..
किन्तु जटिल है अहम् बड़ा
पुनि पुनि कर जाता
फेरा था ..
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था .

रोका था तुमने फिर दृढ़ता से ,
खुद के यूँ बहते जाने को ,
हो लिए पृथक उन लहरों से
जो आतुर थी तुम्हें समाने को
दृष्टि तेरी में साहिल ही
बस एक सुरक्षित घेरा था ...
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था ...

अब बैठ किनारे देख रहे
तुम इश्क की बहती लहरों को,
भीगेगा मन कैसे जब तक
ना तोड़ सकोगे पहरों को !
मैं डूब गयी,मैं ख़त्म हुई
कर अर्पण सब जो मेरा था ....
वेगवान वो लहर थी जिसमें
पूर्ण समर्पण मेरा था ...



सोमवार, 6 जून 2011

सुलगन.....


####

सुलग रहा था
मन का कोई
भीतरी कोना
जिस कारण ...
उसी कारण से
उपजे
तुम्हारे क्रोध ने
कर दी
मेरे हृदय पर
रिमझिम
फुहारों की वर्षा ...
बरस गया
यह एहसास
मुझ पर भी
कि अकेली नहीं
मैं इस सुलगन में .....

रविवार, 5 जून 2011

तुम्हारी पुकार ...

#####

तुम्हारी पुकार पर
मेरी
आतुर प्रतिक्रिया देख
कहा था तुमने
कि
जानता हूँ मैं
चली आओगी
तुम
चिता से भी उठ कर
देने प्रतिउत्तर
मेरी पुकार का ...

कहीं ये न हो
कि
चिता की
बुझती हुई
अंतिम चिंगारी
तक भी
जलती ही रहे
लौ आस की
सुनने को
पुकार तुम्हारी
मेरे
खाक होने से पहले.... .

गुरुवार, 2 जून 2011

बस वही इक रंग है ....

#####

ये ख़्वाब है !
या है हक़ीक़त
तस्सवुर मेरा
या
तुम्हारे
वस्ल का
दिलकश
ढंग है ...

इर्द गिर्द मेरे
कभी
दिखते तो नहीं हो ,
फिर
लिपटा हर घड़ी
ये कौन मेरे
संग है ...

महक उठी हैं
सांसें मेरी
होने के
एहसास से
जिसके
धडकनों में भी
ज्यूँ
बज उठा
मृदंग है ....

भर दी ही
रग रग में
किसने
ये शराब सी ,
छाई अंग अंग
कैसी ये
तरंग है ...

गुनगुनाती हूँ
बेखयाली में
नज्में तुम्हारी,
खिल रहा
लफ़्ज़ों में मेरे
बस वही इक
रंग है ....

सोमवार, 30 मई 2011

संबल इक दूजे का हम तुम !!

तृण प्रेम का, बना है संबल
भवसागर की इन लहरों में
मुक्त हो रही मन से अपने
भले रहे तन इन पहरों में

लहरों का उत्पात रहेगा
विचलित किन्तु कर न सकेगा
दीप जला है प्रेम का अपने
तिमिर पराजित हो के रहेगा

डूब के पार हो जाएँ साथी !
प्रेम ही जीवन की है थाती
राह प्रज्ज्वलित करने हेतु
दीपक बिन है व्यर्थ ही बाती

तुम संग मैं हूँ मुझ संग हो तुम
हो मत जाना लहरों में गुम
आयें जाएँ व्यवधान अनेकों
संबल इक दूजे का हम तुम

संबल इक दूजे का हम तुम !!!.......

शनिवार, 28 मई 2011

स्वाद अद्वैत का !!!!

####

पा कर
विलायक
जल को ,
घबरा गयी थी
डली गुड़ की ,
अपने
अस्तित्व के
खो जाने के
भय से

कर लिया था
पृथक
खुद को
तत्क्षण ही
जल से उसने
होते ही
अंदेशा
इस सम्भावना का ..

किन्तु !!!
हो गए हैं
परिवर्तित
गुण -धर्म
जल के
और
भर गयी है मिठास
स्वाद में
उस के
गुड़ के
आंशिक विलय से

करना पृथक
जल से
गुड़ के
अंश को
नहीं है
अब संभव
क्यूंकि
ले लिया है
स्वाद
जल ने
अद्वैत का !!!!

गुरुवार, 26 मई 2011

लो ! फिर बही जाती हूँ मैं ....

सुखद सी
यह अनुभूति ,
छुअन है
फूल की
या
ज़ख्मों पर
लगता
मरहम है ,
सोच नहीं पाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

आती है
सागर से लहर,
ले जाती है
रेत
तले मेरे
क़दमों से ..
गुदगुदाहट सी
तलुवों में,
पा के
खिलखिलाती हूँ मैं
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

असीम है विस्तार
प्रेम का,
ओर -छोर
इसका
कब दृष्टि
है जान सकी !
आनंद के
इस दरिया में
फिर फिर
गोते खाती हूँ मैं ..
लो !
फिर बही जाती हूँ मैं ....

मंगलवार, 24 मई 2011

अम्बर के काँधे पे ....

अम्बर के
काँधे पे जब,
सर रख कर
अवनि सोती है
कितना भी हो
तिमिर घनेरा
हर रात की
सुबह होती है

सूर्य किरण
चूमे ललाट
तब
धरा की देखो
आँख खुले
बहती बयार के
संग संग
इस जीवन का
हर रंग खिले
खिल उठती हँसी
उन्ही में है
जो आंसू
शबनम रोती है
अम्बर के
काँधे पे जब
सर रख कर
अवनि सोती है .....

उन्मीलित
नयनों से
धरती
क्षितिज को देखो
ताक रही
मन के
सिन्दूरी रंगों को
चेहरे पर उसके
भांप रही
उल्लासित
मन के उपवन में
बीज प्रेम का
बोती है
अम्बर के
काँधे पे जब
सर रख कर
अवनि सोती है




रविवार, 22 मई 2011

ले ली पेड़ों से हरियाली

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ले ली
पेड़ों से
हरियाली
और
सूरज से लाली ,
जवाकुसुम सा
खिला है चेहरा
तन लचके
जैसे डाली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली ..

कोयल से ली
कूहू कूहू
मोर से ले ली
पीहू पीहू
तितली जैसी
उडूं हमेशा
प्रेम में
मैं मतवाली
ले ली
पेड़ों से हरियाली !

खिलूँ
चांदिनी रात सी
अब तो
मन भींगा
बिन बरसात
के अब तो
जबसे लगी
पिया से मेरी
लगन न
छुटने वाली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली!

कोमल मन
की आस जगी है
बात पिया की
प्रेम पगी है
खोने का नहीं
भय है जिसका
ऐसी दौलत ये
पा ली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली ..

प्रेम के रंग में
डूब गयी है ,
जोगन खुद को
भूल गयी है
साजन के
सब रंगों से
चुनरी कोरी
रंग डाली
ले ली
पेड़ों से
हरियाली ..

गुरुवार, 19 मई 2011

नज्में तुम्हारी ...

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भर ली है
अपनी झोली
मैंने
नज्मों से तुम्हारी ....
जिनमें है
संग गुज़रे
लम्हों की खुशबू ..
सब कहा-अनकहा
सिमट आया है
इन बहते हुए
शब्दों में ..
बन गयी हैं
रहनुमा
मेरे अनजान
रास्तों की
नज्में तुम्हारी ..
नहीं होती कभी
मैं तन्हा अब
क्यूंकि
छू कर इनको
महसूस कर लेती हूँ
तुम्हें ...
हुआ था
जन्म इनका
इस छुअन के
इंतज़ार में ही तो ...

बुधवार, 18 मई 2011

आगाज़...

सोचो ,
और ज़रा बताओ तो
कब हुआ था
हमारे रिश्ते का आगाज़ !!

बेसाख्ता
मिल गए थे
हम
यूँही राहों में
और
कर लिया था
महसूस
उस बहते हुए
दरिया को
जिसका आगाज़
जाने कहाँ है
मालूम न था हमें....

जिसका आगाज़ नहीं
अपने बस में
उसको अंजाम देना
मुमकिन है क्या
हम इंसानों को !!!!



सोमवार, 16 मई 2011

नहीं है मन का ठौर सखी री- (भाग २)

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नहीं है मन का ठौर सखी री ...
बात आज कुछ और सखी री
जगती आँखों के सपने में
मुझे मिले चितचोर सखी री ....

शब्द छंद सब हुए विस्मृत
हृदय हुआ दर्शन से ही तृप्त
चरण पखारूँ निज अंसुवन से
सूझे कुछ न और सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ...

प्रेम बन गया भक्ति मेरी
साथ पिया का ,शक्ति मेरी
मन मंदिर में वास उन्ही का
खोजूं क्यूँ कहीं और सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ....

मिटा दूं खुद को प्रेम में उनके
मिलूं पिया से जोगन बनके
कण प्रति कण में उनको पाऊँ
देखूं मैं जिस ओर सखी री
नहीं है मन का ठौर सखी री ......


शनिवार, 14 मई 2011

रूपांतरण ....

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जुड़ते ही स्वयं से
बदल जाती है
गुणवत्ता
जीवन की मेरे

पनपने लगती है
समझ
ज़िंदगी की घटनाओं की
बिना निर्णायक हुए ..

सही -गलत,
अच्छा -बुरा
से हट कर
'जो है -वो है '
की स्वीकृति
शांत करती है
मन -मस्तिष्क मेरा

'मुझे क्या मिलेगा! '
से हट कर
आ जाती हूँ
' मैं क्या दे सकती हूँ! ' पर..

'क्या टूट गया ?'
को भुला कर
होती हूँ केंद्रित
'क्या रच सकती हूँ नया !'पर..

' कैसे मिलेगा
आनंद मुझे ! '
के बजाय
सोचती हूँ
' कैसे व्यक्त करूँ
अपने आनंद को ! '

विचारों का संवेग
होने लगता है कम
और हृदय हो जाता है
अधिक संवेदनशील
जीवन के प्रति

आसान हो जाता है
भूलना
और
माफ करना

दिखने लगते हैं
वे सभी सत्य
जो
उद्व्गिन मन की
लहरों में रहते थे
छुपे हुए ..

रूपान्तरण
मेरे 'स्व' का
बन जाता है
उपहार
अन्यों के लिए
और
जीती रहती हूँ मैं
एक अनवरत आनंद में
स्वतंत्र हो कर
बाहरी दुनिया के
मिथ्या आवरणों से.....



बुधवार, 11 मई 2011

इष्ट तुम्हारा....

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जीवन तो इक बहती धारा
वक़्त न ठहरा ,कभी न हारा

परिवर्तन ही बस अपरिवर्तित
परिवर्तन से ही हुआ विसर्जित

क्यूँ करते संघर्ष व्यर्थ तुम
स्वीकार करो बन के समर्थ तुम

आसक्ति क्यूँ क्षणभंगुर में
मिटा बीज ,पनपा अंकुर में

आज नहीं हैं जब कल जैसा
नहीं रहेगा कल भी ऐसा

दोनों 'कल' ही मिथ्या भ्रम हैं
'अभी' 'यहीं' बस सत्य क्रम है

जो भी शाश्वत और सत्य है
नहीं मिटेगा यही तथ्य है

जियो समग्र हो कर इस क्षण में
मिलेंगे प्रीतम हर इक कण में

मिलन यही अभीष्ट तुम्हारा
पा जाओगे 'इष्ट' तुम्हारा

रविवार, 8 मई 2011

माँ.....

मई का दूसरा रविवार हमेशा मदर्स डे के रूप में मनाया जाता है... शायद व्यस्तता के इस दौर में एक दिन सुनिश्चित करने के लिए कि जो भावनाएं पल पल माँ के लिए मन में रहती हैं उनको आज एक दिन अभिव्यक्त कर पाएं ...कुछ कहने की कोशिश करी है ..जबकि असंभव सा ही है कुछ कहना ..फिर भी ..

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होते हैं मन में
संवेदन ,
आज व्यक्त उन्हें
हम कर लें ,
माँ के प्रति
अगण्य भावों को
सीमित से
शब्दों में भर लें ....

खून से अपने
सींच सींच कर,
पनपाती
एक जीवन को ..
कष्ट असाध्य
सह कर देती है ,
फूल सुगन्धित ,
उपवन को ..

देखभाल फिर
उन फूलों की
तन मन धन से
करती है ...
आंधी ,
बारिश ,
तूफानों से
स्वयं कभी न
डरती है ...

विकसित होते
फूल को
लख लख ,
माँ का मन
हर्षाता है
खिले पूर्ण
निज सम्भावना से
प्रयास यही
दर्शाता है ...

निस्वार्थ प्रेम
बस इसी रूप में
मिलता हर इक
प्राणी को ..
किन्तु माँ ही
समझ सके
इस
मूक प्रेम की
वाणी को ...

शब्दों में
कभी नहीं है
संभव ,
भाव
व्यक्त ये
कर पाना ,
माँ का प्यार
है होता कैसा!
मैंने
माँ बन कर ही
जाना ........




शुक्रवार, 6 मई 2011

निशब्द दिलासा .....

भोर के
उजास में,
चिड़ियों की
मीठी चहचाहट
के मध्य ,
हुई थी
धीमी सी
आहट
उन कदमों की
दर पर मेरे ...
शीतल ,मंद
बयार में
बहते
स्पन्दन
पहुँच गए हैं
मेरे हृदय तक....
छोड़ कर
कदमों के निशाँ,
लौट गए हैं वो
दे कर यह
निशब्द दिलासा
मुझको ,
कि नहीं हुई है
अभी विस्मृत ,
मेरी राह से
जुड़ने वाली
राह उन्हें ...
जलाये हुए
दिया प्रेम का ,
होने को
सतत
चलायमान
इस राह पर,
मेरे लिए तो
यह
निशब्द दिलासा ही
काफी है ......

बुधवार, 4 मई 2011

बादल और आकाश

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छा जाना
घटाओं का
आकाश पर
कर देता है
मलिन
सूर्य
और
चन्द्र को ..

हो जाता है
वातावरण
घुटन भरा
जब नहीं चलती
हवा तनिक भी ..

किन्तु !!
होते हैं बादल
क्षणभंगुर
और
सीमित..
कर पाते हैं
आच्छादित
आकाश के
मात्र अंश को ही ...

नश्वर है
उनसे जनित
घुटन
और
शाश्वत है
खुले आकाश का
आनंद ...

बरसते ही
बादलों के
हो जाता है
समस्त अस्तित्व
उल्लासित ,
खिल उठा है
कण कण
प्रकृति का
भीगी भीगी
अनुभूतियों को लिए...

जिस पल लगे
बादलों की
घुटन से
कहीं ज्यादा है
आनंद
असीमित
आकाश का ,
चले आना
भरके उड़ान
बादलों से परे,
निरभ्र आकाश में
उड़ने को साथ
अंतहीन यात्रा में ..

क्यूंकि !
है व्याकुल
मेरे साथ ही
समस्त अस्तित्व
भी
प्रतीक्षा में
मिलन की अपने ...


शनिवार, 30 अप्रैल 2011

नहीं है मन का ठौर सखी री ...!!!

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कठिन बहुत ये दौर सखी री..!!
नहीं है मन का ठौर सखी री ..!!
प्रेम से यूँ पहचान करा कर ,
कहाँ गए चितचोर सखी री !!
नहीं है मन का ठौर सखी री ..!!

ना जाने आंसू इतने ,ये नैन 
कहाँ से भर भर लाते
मन के संवेगों में कितने
दृश्य हैं मिटते  बनते जाते

चले ना कोई जोर सखी री ..!!
नहीं है मन का ठौर सखी री ..!!

हर पल मैं जी लेती उनको
बसे हैं वो धड़कन में मेरी
दिखते ,पलक मूँद जो लेती
हों भले दूर अखियन  से मेरी

भाए कुछ ना और सखी री ..!!
नहीं है मन का ठौर सखी री ..!!

यही तपस्या है अब मेरी
कुंदन बनूँ विरह में जल कर
आयें जिस पल वो द्वारे  मेरे
अर्पण कर दूं , मन निर्मल कर

पास नहीं कुछ और सखी री ..!!
नहीं है मन का ठौर सखी री ..!!
कठिन बहुत ये दौर सखी री...!!

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

स्वीकृति-समग्रता की


######

स्वीकारें हम
'स्वयं ' को,
बिना किसी
मूल्यांकन के ..
स्वीकारें
हर वृति को
स्वयं की
जो दिखती है
अन्यों में
हमें
एक दोष की तरह ....

हूँ मैं स्वार्थी
उतनी ही
जितना हो सकता है
कोई भी दूसरा
अनुसार मेरे ..
है क्रोध
मुझमें भी
वैसा ही
दिखता है जैसा
अन्यों में भी मुझको ...

नकारना
इन विषय-वासनाओं को
नहीं दिला सकता
मुझे मुक्ति इनसे
अपितु
जमा लेती हैं ये
गहरे अवचेतन में
अपनी जड़ें
करने से
दमन इनका ...

उपचार
होता है संभव
रोग का
मात्र
उसके निदान के
पश्चात् ...
आ जाती हैं
परिधि पर
ये विषय वासनाएं
मिलते ही स्वीकृति
मेरे स्वयं की ..

नहीं होती हूँ
प्रभावित इनसे मैं
होने के बाद
बोध इनका
और
हो जाता है संभव
विसर्जन
तत्पश्चात इनका
सहजता से ...

स्वीकृति
समग्रता की ही
दिला सकती है
मुक्ति हमें
नकारात्मकता से
जिससे
जी सकें हम
एक
सरल ,
सहज
और
सकारात्मक
जीवन
बढते हुए
मंजिल की तरफ ......



गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

चंद जज़्बात ..

***************

रहे मसरूफ़
हर लम्हा
किसी के
इंतज़ार में ...
अफ़सुर्दा हैं
अब
छूट कर
हम
इस उम्मीद से ..

अफ़सुर्दा- उदास

************************************

दम निकलता है
हर इक
अरमान पे
अब इस कदर .....
पुरसुकूं जीने को
लाजिम है कि
ख्वाहिश न रहे ....

************************************

पा कर
हसीं नवाज़िशें
इस इश्क की
सनम .....
क्यूँ खो चुके हैं
उनको
कई गफलतों में
हम !!!!

*******************************

भुला कैसे सकोगे
वक्त गुज़रा
संग जो अपने ..
खुली आँखों से
देखे थे
जो हमने
अनगिनत सपने ..

नहीं है फर्क
तुझमें और मुझमें
कोई भी हमदम ...
हुए बेज़ार
जब से तुम
मैं भूली सब मेरे नगमें .....



मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

पतझड़ के पीले पात ...

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हो जाने दो
उर्वरक
पतझड़ के
पीले पत्तों को
धरा में
उपस्थित
जीवन के
सहज
प्रस्फुटन के लिए...

इक्कठा कर
इन सूखे झरे
पातों को
क्यूँ देते हो
सम्भावना
किसी
नन्ही सी
चिंगारी को
मिलते ही
हवा
दावानल
बनने के लिए