रविवार, 18 दिसंबर 2011

प्रेम की दीपशिखा...

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कठिन नहीं है
प्रेम को महसूस करना
होता है कठिन
किसी क्षण में
महसूस किये गए
प्रेम की
दीपशिखा को
जलाये रखना
और
उससे भी अधिक कठिन
उस लौ को
निरंतर
उज्जवल करना

होता है जिस क्षण प्रेम
शब्दों में परिवर्तित ,
कर लेता है
मस्तिष्क
अतिक्रमण हृदय का
और
मिलता है
मिथ्या प्रतिबिम्ब
प्रेम का
सुनी,
कही,
देखी ,
बातों के अनुरूप

उलझ जाते हैं
हम
मायाजाल में
आसक्ति
और
निर्भरता के
और होता है अंत
ऐसे प्रेम का
दुःख
और
हताशा में
आरोप -प्रत्यारोप में ...

हो कर
समाकलित ,
सुसंगत
और
संवेदनशील
न सिर्फ
जलाये रख सकते हैं
हम
अपने हृदय में
दीपशिखा प्रेम की
अपितु
कर सकते हैं
विस्तार
इसकी ज्योति का
कण कण में ....

2 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

वाह ………प्रेम की दीपशिखा निरन्तर जलाये रखना एक कसौटी ही तो है प्रेम की।

देवेंद्र ने कहा…

उस अद्भुत प्रेम का प्रथम अनुभूति व उससे भी आगे इस प्रेम की ज्योति को निरंतर जागृत रखना ही प्रेम की पराकाष्ठा है, और यह पूर्ण समर्पण से ही संभव है।