बुधवार, 29 जून 2011

नहीं घुटेगा फिर ये प्रेम

आकांक्षा ,
अपेक्षा ,
अनुग्रह ,
अधिकार ...
जकड़ लेते हैं
मन को ,
घुट जाता है
प्रेम ..

हो कर जीना
सहज ,
सरल ..
नदिया सा
हो जाओ
तरल ...
छिपा है
प्रकृति के
कण कण में
सीखो उससे
बिछोह और नेह ..
नहीं घुटेगा
फिर ये प्रेम .

नहीं घुटेगा
फिर ये प्रेम ..

सोमवार, 27 जून 2011

बरस रहा घनघोर ..

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नभ आतुर,मिलने धरती से
बरस रहा घनघोर,
जली विरह में वसुधा कितनी
उत्प्लावन चहुँ ओर

सूरज ने था बहुत सताया
कोमल भावों को झुलसाया
धीर धरा सा गर हो मन में,
नहीं चले कभी कोई जोर

निशा अँधेरी जब भी आई
घोर मलिनता मन पर छाई
प्रेम बन गया आस का दीपक
जगती रही हर भोर.

सदियाँ बीती मिलन को अपने
फिर से सजने लगे हैं सपने
शब्दों के गिर गए आवरण
मौन में बदला शोर,
नभ आतुर,मिलने धरती से
बरस रहा घनघोर,
जली विरह में वसुधा कितनी
उत्प्लावन चहुँ ओर

शुक्रवार, 24 जून 2011

मीरा दीवानी हो गयी....(तरही गज़ल )

जो सुनी , देखी ना जानी ,वो कहानी हो गयी
तुमसे नज़रें क्या मिलीं,धड़कन रूहानी हो गयी

बात कितनी कह दी हमने ,और उसने सुन भी ली
गुफ़्तगू में दो दिलों की ,बेज़ुबानी हो गयी

भेद क्या है प्यार में ,साकार का ,निराकार का
कृष्ण की चाहत में जब ,मीरा दीवानी हो गयी

रक्स उसकी चाल में , आँखों में पैमाने भरे
देख कर उसको खिजां में गुलफ़िशानी हो गयी

हो जुदा नेमत से तेरी ,'मैं' ही मैं करता रहा
मिट गया वो जिसपे तेरी मेहरबानी हो गयी

सोमवार, 20 जून 2011

वो मंद मंद मुस्काता है....

पाना, खोना हँसना ,रोना
है भ्रम हमारी दृष्टि का
वो मंद मंद मुस्काता है,
सब खेल रचा कर सृष्टि का .....

कब मिलन हुआ ,कब बिछुड़े हम,
क्यूँ याद रखें ,क्यूँ करना ग़म !
जिस पल बरसा बादल कोई ,
बस वही समय है वृष्टि का ...
वो मंद मंद मुस्काता है,
सब खेल रचा कर सृष्टि का .....

बीते अनुभव पर अटक गए ,
यूँ नयी दिशायें भटक गए
बिन खुले कभी क्या जान सका
कोई राज़ कभी ,बंद मुष्टि का !!!
वो मंद मंद मुस्काता है,
सब खेल रचा कर सृष्टि का .....

पाना, खोना हँसना ,रोना
है भ्रम हमारी दृष्टि का !

आकाश...(आशु रचना )



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असीम विस्तार है
आकाश का ,
जानती हूँ !
मेरी दृष्टि की
सीमाओं से परे..
किन्तु ,
मेरे
एहसासों की
उड़ान
के लिए
पर्याप्त है
आकाश
हृदय का
तुम्हारे ...
थक कर
सिमट आने को
ज़मीं भी तो
दिल की
दिलाती है न
अपने होने का यकीं
उनको ...!!

शनिवार, 18 जून 2011

जो तुम न बोले बात प्रिय .....



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दृष्टि से ओझल तुम किन्तु
हो हर पल मेरे साथ प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ...

हृदय मेरा स्पंदित है
इन एहसासों की भाषा से
हो चले हैं हम अब दूर बहुत
हर दुनियावी परिभाषा से
नहीं मलिन कभी हैं मन अपने
दिन हो अब चाहे रात प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ......

भँवरे के चुम्बन से जैसे
बन फूल ,कली मुस्काती है
आ कर दीपक आलिंगन में
बाती जैसे इठलाती है
ऐसे ही छुअन तुम्हारी से
खिल जाता मेरा गात प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ....

तुमने कब दूर किया खुद से
मैं भी कब हुई अकेली थी
धड़कन ,साँसों में कौन बसा
उलझी ये बड़ी पहेली थी
इस प्रेम की बाजी में अपनी
न शह है न ही मात प्रिय
गुंजारित है हर कण में
जो तुम न बोले बात प्रिय ...

गुरुवार, 16 जून 2011

आज कल पाँव ज़मीं पर...



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हथेलियों में
भर कर
चूमा है
जबसे तुमने
पाँवों को मेरे ,
कहते हुए
उनको
जोड़ा हंसों का ,
रखा नहीं है
धरती पर
एक पग भी मैंने ..
कैसे मलिन कर दूं
छाप
होठों की
तुम्हारे ..

बोलो !
देखा है ना
तभी से
तुमने मुझे
उड़ते हुए .....



मंगलवार, 14 जून 2011

हिज्र का बहाना कोई !!

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यूँ तो
फुर्सत नहीं
सुनने को
जहां की बातें ..
ज़िक्र तेरा
मगर
ये वक़्त
रुका देता है ..
नाम सुनते ही
तेरा
कांपने लगते हैं
ये लब ,
इक तसव्वुर
तेरा
पलकों को
झुका देता है ...

मैं कहूँ भी तो
कहूं कैसे
मेरा
हाल-ए- जिगर ,
इश्क
तुझसे ये मेरा,
हो ना
फ़साना कोई ...
कोशिशें
वस्ल की
करने में
सनम ,
मिल ना जाए
कहीं ,
हिज्र का
बहाना कोई ....

मिल ना जाए
कहीं ,
हिज्र का
बहाना कोई ...!!!!

बुधवार, 8 जून 2011

पूर्ण समर्पण मेरा था ....

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वेगवान वो लहर थी जिसमें
पूर्ण समर्पण मेरा था ...
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था ...

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बह निकले तुम फिर संग मेरे ,
उन्मादित धारा में डूब उतर ..
यूं लगा मिटे थे द्वैत सभी
हस्ती निज की थी गयी बिसर..
किन्तु जटिल है अहम् बड़ा
पुनि पुनि कर जाता
फेरा था ..
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था .

रोका था तुमने फिर दृढ़ता से ,
खुद के यूँ बहते जाने को ,
हो लिए पृथक उन लहरों से
जो आतुर थी तुम्हें समाने को
दृष्टि तेरी में साहिल ही
बस एक सुरक्षित घेरा था ...
दृढ कदम तुम्हारे उखड़ गए ,
बचने को न कोई डेरा था ...

अब बैठ किनारे देख रहे
तुम इश्क की बहती लहरों को,
भीगेगा मन कैसे जब तक
ना तोड़ सकोगे पहरों को !
मैं डूब गयी,मैं ख़त्म हुई
कर अर्पण सब जो मेरा था ....
वेगवान वो लहर थी जिसमें
पूर्ण समर्पण मेरा था ...



सोमवार, 6 जून 2011

सुलगन.....


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सुलग रहा था
मन का कोई
भीतरी कोना
जिस कारण ...
उसी कारण से
उपजे
तुम्हारे क्रोध ने
कर दी
मेरे हृदय पर
रिमझिम
फुहारों की वर्षा ...
बरस गया
यह एहसास
मुझ पर भी
कि अकेली नहीं
मैं इस सुलगन में .....

रविवार, 5 जून 2011

तुम्हारी पुकार ...

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तुम्हारी पुकार पर
मेरी
आतुर प्रतिक्रिया देख
कहा था तुमने
कि
जानता हूँ मैं
चली आओगी
तुम
चिता से भी उठ कर
देने प्रतिउत्तर
मेरी पुकार का ...

कहीं ये न हो
कि
चिता की
बुझती हुई
अंतिम चिंगारी
तक भी
जलती ही रहे
लौ आस की
सुनने को
पुकार तुम्हारी
मेरे
खाक होने से पहले.... .

गुरुवार, 2 जून 2011

बस वही इक रंग है ....

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ये ख़्वाब है !
या है हक़ीक़त
तस्सवुर मेरा
या
तुम्हारे
वस्ल का
दिलकश
ढंग है ...

इर्द गिर्द मेरे
कभी
दिखते तो नहीं हो ,
फिर
लिपटा हर घड़ी
ये कौन मेरे
संग है ...

महक उठी हैं
सांसें मेरी
होने के
एहसास से
जिसके
धडकनों में भी
ज्यूँ
बज उठा
मृदंग है ....

भर दी ही
रग रग में
किसने
ये शराब सी ,
छाई अंग अंग
कैसी ये
तरंग है ...

गुनगुनाती हूँ
बेखयाली में
नज्में तुम्हारी,
खिल रहा
लफ़्ज़ों में मेरे
बस वही इक
रंग है ....