रविवार, 17 नवंबर 2019

ख़ुद की मौज में....


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कर रही है खुशगवार
रातरानी की यह मादक महक
मुझको...
लदी हुई हैं शाखें
कोमल उजले सफेद फूलों से,
खिल उठते हैं हममिजाज़ मौसम में
गुंचे गुलों के
बिना किसी इंतजार
बिना इस सोच
बिना किसी उम्मीद के
कि इस खुशबू को
कोई महसूसेगा या नहीं,
मफ़हूमियत है 'होने' की
इस खिलने
और सुगंध बिखेरने में ही,
होते होंगे बहुतेरे
जो चले जाते हैं अनछुए से
गमकती हुई रातरानी के वजूद से
मगर नहीं होता मायूस
कोई कोई बूटा
नहीं रोकता
खिलने से फूलों को
ना ही कहता है
उन बेहिस लोगों से
कि रुको देखो
कितना लदा हूँ मैं फूलों से
महसूस करो ना तुम
मेरी खुशबू को ,
कैसे कर सकते हो तुम
नज़रअंदाज़ मेरी मौजूदगी की
लेकिन 'होना' उसका
नहीं है मुनहसिर किसी पर भी
वो तो है खुश ख़ुद की मौज में
नहीं है मुतालब
किसी की चाहत या तारीफ से,
कर रहा है सराबोर
फ़िज़ा को अपनी खुशबू से,
जो महसूस करे
करम उसपे मौला का
ना कर सके तो
बदनसीबी उसकी....

मायने:

हममिजाज़-अनुकूल/congenial
मफ़हूमियत -सार्थकता/meaningful
बेहिस-असंवेदनशील/insensitive
मुनहसिर-निर्भर/dependent
मुतालब-इच्छा करना/demanding

बुधवार, 13 नवंबर 2019

आघात.......


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समझ लेते हैं
जिसे आघात हम
होता है वह शिल्प
उस निपुण संगतराश का,
तराश रहा होता है जो
अनगढ़ पत्थर में छुपे
बेढब जमावड़ों में ढके
हमारे सुगढ़ मूल स्वरूप को
धारदार छेनी की
कभी हल्की
कभी तीखी चोटों से...

दिखती है प्रकट में
करते हुए आघात छेनी ही
तोड़ते हुए आडम्बरी वजूद को
किन्तु है वो तो
एक उपकरण मात्र
रचयिता के सधे हुए हाथों में
करता है जिसका उपयोग
वो सर्वशक्तिमान
उकेरने को खुद का ही स्वरूप
किसी मनपसंद पात्र को चुन कर.....

कृतज्ञता हमारी
मूर्तिकार के प्रति
छेनी के प्रति
और इस अस्तित्व के प्रति
दे सकती है ताक़त
सहने की हर आघात को
पी लेने की हर दर्द को,
तभी तो उतरता है
परमात्मा
अपने समग्र रूप में
अपनी सम्पूर्ण संवेदना के साथ .....

शनिवार, 9 नवंबर 2019

जागृत रवि.....


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घेर लिया था
अवसाद की बदली ने
अलसाई  सर्द सुबह के
सोए हुए से सूरज को,
होते ही जागृत
अपने तेज और प्रकाश के प्रति
हुआ था प्रकट रवि
बिखेरते हुए लालिमा चहुं ओर
बदलते हुए स्वरूप
उस धूसर सी बदली का
अपने चमकते सुनहरी रँग से...


के तुम आओगे .......

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शम्मे वफ़ाओं की जलाए बैठी हूँ  , के तुम आओगे
अश्क़ पलकों में छुपाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे...

खामोशियाँ इक दूजे तक पहुंची हैं मगर अब
आस गुफ़्तगू की लगाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे ....

धड़क उठता है दिल मेरा ज़रा सी जुम्बिश पे
नज़र यूँ राह में तेरी ,बिछाए बैठी हूँ के तुम आओगे....

नहीं कटते जुदाई में यूँ तन्हा शाम ओ सहर
तस्सवुर की हसीं महफ़िल,सजाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे ...


हो हर धड़कन में ,साँसों में,समाए रूह में मेरी
खुद को खुद ही से चुराए बैठी हूँ के तुम आओगे....

नहीं थे तुम लकीरों में मेरे हाथों की ये माना
जो था लिक्खा , सब कुछ मिटाए ,बैठी हूँ के तुम आओगे....

है रोशन ये जहां सारा तेरे आने की आहट से
दरीचों के दिये मस्नूई ,बुझाए बैठी हूँ ,के तुम आओगे....

मायने:
गुफ़्तगू-बातचीत
जुम्बिश-हलचल
तस्सवुर-कल्पना
मस्नूई-बनावटी/पाखंडपूर्ण