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समझ लेते हैं
जिसे आघात हम
होता है वह शिल्प
उस निपुण संगतराश का,
तराश रहा होता है जो
अनगढ़ पत्थर में छुपे
बेढब जमावड़ों में ढके
हमारे सुगढ़ मूल स्वरूप को
धारदार छेनी की
कभी हल्की
कभी तीखी चोटों से...
दिखती है प्रकट में
करते हुए आघात छेनी ही
तोड़ते हुए आडम्बरी वजूद को
किन्तु है वो तो
एक उपकरण मात्र
रचयिता के सधे हुए हाथों में
करता है जिसका उपयोग
वो सर्वशक्तिमान
उकेरने को खुद का ही स्वरूप
किसी मनपसंद पात्र को चुन कर.....
कृतज्ञता हमारी
मूर्तिकार के प्रति
छेनी के प्रति
और इस अस्तित्व के प्रति
दे सकती है ताक़त
सहने की हर आघात को
पी लेने की हर दर्द को,
तभी तो उतरता है
परमात्मा
अपने समग्र रूप में
अपनी सम्पूर्ण संवेदना के साथ .....
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