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मिलना अपना
नहीं था न
कोई पहली बार
मिलने जैसा ?
था वो तो
जी लेना फिर से
गुज़रे हुए लम्हात का...
एक एहसासे सुकूँ था
अपने बिछड़े हिस्से से
फिर हुई
मुलाकात का ,
अबोला कहना
अनकहा सुनना
ओर न छोर था
बीच अपने किसी बात का...
पहचान कर
अपनी सी ताल को
बढ़े जा रही थी
धड़कनें
हो कर बेकाबू,
इल्म न था उनको
किसी वक़्ती एहतियात का,
जन्मों की जानी चिन्ही
महक थी
हर सूं मेरे
ना, ना!
ये तो समाई थी
मुझमें ही ,
उतर आया था
चार आँखों में
एक समन्दर
उमड़े हुए जज़्बात का...