तुम्हारी कल्पनाओं की
वीभत्स उड़ान को
झुठलाने में ,
ज़ाया नहीं करनी मुझे
स्वयं की ऊर्जा ,
जो होती है सहयोगी
मेरी सुन्दरतम उड़ानों में ...
नकारुं भी तो उसे
जिसका अस्तित्व
नहीं है कहीं
सिवाय तुम्हारी
गढ़ी हुई
सोचों में होने के ..
समझ लो
मेरे मौन को
स्वीकृति
तुम्हारे आक्षेपों की भले ही ..
किन्तु !!
प्रेम की वेदी पर,
अविश्वास की अग्नि में
उतर कर
संभव नहीं है
साबित करना स्वयं को
तुम्हारे मानकों के अनुसार..
और ,
साबित कर भी लिया
आज ,
तो
कल
फिर किसी बात पर
धधक उठेगी यह ज्वाला
जो सतत सुलगती है
अंतर्मन में तुम्हारे ...
इसलिए ..
हे मर्यादित पुरुष !
अपनी मर्यादाओं के
मापदंडों को ढोते हुए
बने रह सकते हो तुम
'राम "
सदियों तक भले ही ..
किन्तु !
नहीं है संभव
एक क्षण भी,
उस बोझ तले ,
सीता बनना
अब मेरे लिए ...
नहीं है संभव
सीता बनना
अब मेरे लिए ...!!!!!!