गुरुवार, 29 सितंबर 2011

नहीं है संभव ...


तुम्हारी कल्पनाओं की 
वीभत्स उड़ान को 
झुठलाने में ,
ज़ाया नहीं करनी मुझे 
स्वयं की ऊर्जा ,
जो होती है सहयोगी 
मेरी सुन्दरतम उड़ानों में ...

नकारुं भी तो उसे 
जिसका अस्तित्व
नहीं है कहीं 
सिवाय तुम्हारी
गढ़ी हुई 
सोचों में होने के ..

समझ लो 
मेरे मौन को 
स्वीकृति 
तुम्हारे आक्षेपों की भले ही ..
किन्तु !!
प्रेम की वेदी पर, 
अविश्वास की अग्नि में 
उतर कर 
संभव नहीं है 
साबित करना स्वयं को 
तुम्हारे मानकों के अनुसार.. 

और ,
साबित कर भी लिया
आज ,
तो 
कल 
फिर किसी बात पर 
धधक उठेगी यह ज्वाला 
जो सतत सुलगती है 
अंतर्मन में तुम्हारे ...

इसलिए ..
हे मर्यादित पुरुष !
अपनी मर्यादाओं के 
मापदंडों को ढोते हुए 
बने रह सकते हो तुम 
'राम "
सदियों तक भले ही ..
किन्तु !
नहीं है संभव 
एक क्षण भी, 
उस बोझ तले ,
सीता बनना 
अब मेरे लिए ...

नहीं है संभव 
सीता बनना 
अब मेरे लिए ...!!!!!!

बुधवार, 7 सितंबर 2011

सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी (तरही गज़ल )


मिसरा -ज़रा सी चीज़ घबराहट में ना जाने कहाँ रख दी -आरज़ू लखनवी
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नज़र की ताब अपनी ,मैंने सू-ए-आसमां रख दी
छुपा कर अब्र में लेकिन ,किसी ने आंधियाँ रख दीं

छुपाया ख़्वाब जो जग से ,उसे फिर जी नहीं पाए
ज़रा सी चीज़ घबराहट में ना जाने कहाँ रख दी

पलों का साथ मिलना ,साथ बहना फिर जुदा होना
खुदा ने क्यूँ सफ़र में मेरे , बस तन्हाइयां रख दीं

हिलाए न थे तुमने लब , न मैंने ही ज़ुबां खोली
घुटन न जाने किन लफ्ज़ों ने अपने दरमियाँ रख दी!

लगाये फूल बगिया में , था अश्कों से उन्हें सींचा
खिज़ा ,लेकिन मेरी किस्मत ने ,मेरे गुलसितां रख दी

इशारों ही इशारों में ,बयाँ  कर डाला हाल-ए-दिल
सर-ए-महफिल मेरी दीवानगी यूँ बेज़ुबां रख दी

सोमवार, 5 सितंबर 2011

स्वतंत्रता ...

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नहीं होता है
यदि
सहज विश्वास
किसी को
मुझ पर
तो नहीं है जरूरत
मुझे
उसे बनाने का
प्रयत्न करने की
क्यूंकि ..!!
नहीं खो सकती मैं ,
जीवन को
जीने की
स्वतंत्रता ,
हर पल
उस बनाये हुए
विश्वास के
टूट जाने के
भय में .....