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न जाने
कितने जन्मों का
उठाये हुए कर्ज़
रूह पर अपनी
चली आती हूँ
बार बार
चुकाने उसको
लेकिन
चुकता नहीं
पुराना कर्ज़
और करती जाती हूँ
उधारी ,
ज़िन्दगी जीते जीते
भावों के आदान प्रदान में ...
जुड़ जाता है
क्रोध
वैमनस्य
निराशा
हताशा
अपेक्षा
कामना
वासना
ईर्ष्या
प्रतिस्पर्धा
अनदेखे
अनजानों के साथ भी
बाँध के गठरी
इतने बोझ की
जा नहीं सकती
दुनिया के
चक्रव्यूह से परे
हे माँ शक्ति !
कर सक्षम मुझको
हो पाऊं साक्षी
करने को विसर्जन
इस गठरी का
और चुका सकूँ
कर्ज़ अपना
हो कर प्रेम
समस्त
अस्तित्व में ,
अश्रु पूरित नैनों से
है बस यही
करबद्ध प्रार्थना
तुझसे ......