बुधवार, 30 जून 2010

आब-ए-वफ़ा...

पिघलता है
जब
तुमसा
हिम खंड,
मोहब्बत की
तपिश से

उफन उठता है
एहसासों से
भरा,
मेरे दिल का
दरिया

हो उठता है
हर ज़र्रा,
हरा भरा,
और पुरनूर

जब होता है
वाबस्ता,
उस
आब-ए- वफ़ा
से .....

सोमवार, 28 जून 2010

वक्त के पंख....

######

वक्त भी
थम
गया है
दरवाजे पे
टिकी
मेरी
नज़रों
की तरह

आओ न..!!
आ कर
पंख
दे दो
इसको
मुद्दते
हो गयी
इसको
भी
उड़े हुए ....

रविवार, 27 जून 2010

क्या समझे ..

सरे-महफ़िल रकीबों  की,उन्हें हम आशना समझे
हम उनको देखो क्या समझे थे और वो हमको क्या समझे

अयाँ  हो ही गया ,कुछ इस तरह से ,हाल भी उन पर
निगाहों से गुज़र  कर दिल के जज्बों का बयां समझे

बिखर उठे हैं हर सूं बन के खुशबू मेरी  रातों की
हमीं   नादाँ  तेरे  ख्वाबों को पलकों में निहां समझे
 
कफस  में रहते रहते हो लिए सैयाद से मानूस
रिहाई ठुकरा देने से वो हमको नातवां समझे

वफ़ा का पास न तुझको मेरी ,फिर भी ए जानम
सितम ये क्या ,रकीबों को भी अब तू बा-वफ़ा समझे

हंसी को देख  कर उनकी कहीं धोखा न खा जाना
तब्बसुम में छिपे हैं गम ,जिन्हें बस आशना समझे

मिलेंगे ख़ार भी, संग भी ,चलोगे जब मेरी जानिब
नहीं मिलते मोहब्बत के सफर में  कहकशां... समझे!!

शुक्रवार, 18 जून 2010

वार्तालाप-एक माँ का स्वयं से

नन्ही
पदचाप की
धीमी सी
आहट..
अनदेखे
स्पंदनो
की
प्यारी सी
सुगबुगाहट ..

पुत्र  की
आस में
चौथी बार
यह आहट है
आशंकित है
मन
ह्रदय में
छटपटाहट है ..

क्यूँ हूँ
मजबूर
वंश बेल
बढ़ाने को
बेटियों का
छीन
अधिकार
क्यूँ उनको
न पढ़ाने  को

मासूम सी
आँखों में
अनगिनत
प्रश्न हैं
सिर्फ पुत्रों
के आने
का ही
मनता क्यूँ
जश्न है

समझेगा
बोझ
कब तक
बेटियों को
यह ज़माना..
बेटों  से
बढ़ कर
माँ-बाप
का दुःख 
है उन्होंने
पहचाना ..

मूक समर्थन
मेरा,
पुत्र की
व्यर्थ
चाह में
बो  रहा है
कांटे
मेरी
बेटियों की
राह में ..

नहीं दे कर
उनको
जीवन का
सुदृढ़ आधार
स्वयं
कर रही हूँ
अपनी सी
तीन पौधें
तैयार ..

नहीं  !!
अब नहीं
सहूंगी
और यह
अनर्थ..
बनाऊँगी
बेटियों
को
इतना मैं
समर्थ ..

स्वयं
लहलहाएंगी वे
पूर्ण विकसित
तरु सी... 
कर देंगी
उसको भी
उर्वर,
भूमि
हो गर
मरू सी ..

सृष्टि का
आधार है
बेटी
दे कर
उसको
उचित
सम्मान..
बने  राष्ट्र
सुदृढ़
समग्र
यह
दिश  दिश
हो इसकी
पहचान ...

मंगलवार, 15 जून 2010

निर्बन्ध प्रयास...


#########

दे दिया
जाता है
नाम
जब
एहसास
को
एक
रिश्ते का
झुठला
जाता है
अस्तित्व
भी
प्रेम के
फ़रिश्ते का ...

हो जाते हैं
दफ़न
जिए थे
साथ
जो क्षण ,
करते हुए
एक दूजे का
अन्वेषण ..
रह जाता है
शेष बस
रिश्तों में
बंधा
एक
तुलनात्मक
विश्लेषण ...

घुट जाता है
दम
उस
पृथक
व्यक्तित्व का
देखा था
सपना
जिसने
सह-अस्तित्व का ...

प्रेम
नहीं
कभी
परिभाषाओं
में
ढल
सकता..
बहता
दरिया
कैसे
रह
अविचल
सकता ...

करना है
गर
ह्रदय में
विकसित
प्रेम
के
एहसास
को ...
निर्बन्ध
हो कर ,
करो
सार्थक
खिलती
रूहों के
सहज 
प्रयास को ....


.........

सोमवार, 14 जून 2010

छद्म प्रभुता ...

############

प्रभुता स्वयं की
सिद्ध करने को
हीन कहा
दूजे को तूने

गिरा किसी को
सोचा ,पहुंचूं ,
आस्मां को
लगूं मैं छूने

पर उत्थान
स्वयं
का होता
जब शक्ति
होती
निज मन में

उपक्रम हो
आगे बढ़ने का
सजग
दृष्टि से
इस
जीवन में

शनिवार, 12 जून 2010

सितम है

जीवन साँसों के उठने गिरने का क्रम है
यही है ज़िंदगी , दिल को क्यूँ यह भ्रम है

ना झूमती शाखें हैं, ना महकते फूल
ऐसा जीना क्या उजड़ी बहार से कम है!

जश्न है गुलशन में खिलती हुई कली का
बिखरा मुरझा के गुल ,नहीं उसका गम है

अश्क दिखते नहीं बहते मेरी निगाहों से
छुआ जब भी दामन तेरा ,पाया उसे नम है

निगाहों में नहीं रानाई -ए-तब्बस्सुम
सजी है हँसी चेहरे पर कैसा यह फन है

शब-ए हिज्र ने पूछा जो हँस के हाल मेरा
सुनाये उसे क्या ,दिल पे जो सितम है

चुन चुन के पिरोए थे अल्फ़ाज़ बातों में
शब-ए-वस्ल हुई इन्ही किस्सों में खतम है

......

मुख़्तसर लम्हा

बहुत शुरुआती दौर की रचना है..भावों को शब्दों में बंधना सीख रही थी.. कच्ची कच्ची सी रचना को आज थोड़ी सी आंच दे कर पकाने की कोशिश की है... जो भी कमी हो इंगित अवश्य करियेगा ...

###############################

देख रही हूँ
अनजान राहों
से गुज़रता
लम्हों का
कारवाँ
कुछ नन्हे मुन्ने
कुछ अल्हड़
कुछ परिपक्व
और कुछ
हैं बुजुर्ग
हर लम्हा
समेटे हुए
अपने में
जीवन
है सम्पूर्ण

क्या है
इनमें वह
मुख़्तसर
लम्हा
जो मिलेगा
मुझसे
अलग हो कर
इस कारवां से
और खिल
उठूंगी मैं
उस एक
लम्हे के
मेरा होने के
एहसास से

पालूंगी पोसूँगी
जी लूँगी
उसके
बचपन में
अपना बचपन
फिर यौवन
उस लम्हे का
भिगो देगा
मेरा तन मन
होता हुआ
परिपक्व
समझा  देगा
मुझे भी
जीवन के
गूढ़ रहस्य
और तब
खुलेगा भेद
ये मुझ पर
नहीं है मेरा
कोई लम्हा..
और हैं
ये  सब
मेरे ही तो
हर लम्हे में
बसता बचपन ,
यौवन
और
परिपक्वता
मेरे  ही है

क्यूँ
जी नहीं लेती
हर उस
लम्हे को
जो गुज़र
रहा है
हँसता
मुस्कुराता
नज़रों से
छू कर मेरी ...
पाने एक
अधूरे से
लम्हे को
नादान सी
मैं
बिछुड़
जाती हूँ
उस
कारवाँ से
जिसकी
राह भी मैं
और शायद
मैं ही
मंजिल भी ...

शुक्रवार, 11 जून 2010

आनंद इस पल का ...

मंजिल को
पाने की
लिप्सा में
मत भूल
तू
मनमोहक
रास्ता
हर
क्षण का
देगी
आनंद
तुझको
मन की 
सजगता
और
ग्राह्यता

अज्ञात की
फ़िक्र में
क्यूँ
करता
उपेक्षा
इस क्षण
की
उत्सव
आनंद है
हर पल में
पहचान
आँखें
खोल
मन की .....




बुधवार, 9 जून 2010

कहूँ कैसे

 ############
मेरी चुप को ना गर समझे
ज़ुबां से मैं कहूँ कैसे
घुटा जाता है दम अब ,
बिन कहे भी मैं रहूँ कैसे

इश्क उनका ये मुझसे,
हो सही उनकी इबादत भी
तगाफुल  ,उस परस्तिश का
जो की मैंने , सहूँ कैसे
...............................................
 मायने -
इबादत-उपासना
तगाफुल-उपेक्षा
परस्तिश-पूजा

मंगलवार, 8 जून 2010

जीवन क्रम ...

मानवता से प्रेम बड़ा है
मन के ऊपर मानवता ,
मन के भेद- अभेद खुले जब
दिखे छुपी निज दानवता

हैं परिभाषाएं गढ़ी हुई जो
लगती हैं सारी निस्सार
थोथा जीवन जीते  हैं हम
जान ना पाते इसका सार

चार  तरह के मनुज धरा पर
करते जीवन क्रम निर्धारित
कैसा जीवन पाए मानव
होता कर्मों पर आधारित

तिमिर से आना  तिमिर में जाना
व्यर्थ है मानव जीवन इसमें
ज्योति से गिर तिमिर को जाना
इंगित दुर्बल मन का जिसमें

जन्म तिमिर में ,किन्तु कर्मों से
हो जाता ज्योति को विकसित
ज्योति से ज्योति को  पाना
मानव धर्म है यही अपेक्षित

दृष्टा बन कर देखें निज को
घिरे रहें ना व्यर्थ भ्रम में
सकल चेतना करें  प्रवाहित
मुक्त रहें हम जीवन क्रम में

रविवार, 6 जून 2010

नाम तू लिख दे


#########

उदासी दिल पे छाई है ,कोई पैगाम तू लिख दे
छुपाना नाम गर चाहे ,यूँही बेनाम तू लिख दे

सफर मेरा कटे तनहा ,अगरचे है यही किस्मत
ना हो ता-उम्र मुमकिन तो , फक़त एक शाम तू लिख दे

सज़ा के मुस्तहिक हैं हम, अगर तेरी निगाहों में
तो ए मोहसिन ,मेरे हमदम ,कोई इलज़ाम तू लिख दे

सुकूँ-ए -दिल मिलेगा , देख लेंगे इक नज़र तुझको
बज़्म में आ कभी मेरी ,बयां कुछ आम तू लिख दे

निगाहों में समेटे हैं , छलकती मय के पैमाने
गज़ल हो जाए इन पर भी ,कलाम-ए जाम तू लिख दे

घुली हैं रूहें ,जिस्मों से गुज़र कर ,ए मेरे मालिक
इन्हें पहचान देने को ,बदन पर नाम तू लिख दे

शुक्रवार, 4 जून 2010

वह अगण्य पल.....

#####

न जाने
कितने
पलों को
गिनने
के बाद
मिलता है
सुकूँ
उस घडी
जब
होते हैं
हम साथ
गूँज उठती हैं
दिशाएं
झूम उठती है
बहारें
करते हैं
दुनिया जहान 
की बातें
जो
हो के भी
नहीं होती
दरमियाँ हमारे
घुलते मिलते हैं
अंतस हमारे
उन
दुनियावी बातों
के ज़रिये
आ जाते हैं
हम
और करीब
दूर हुए बिना
अपनों से
अगण्य
पलों को
जीते हैं
हम साथ
हँसते हैं
गाते हैं
लिए
हाथों  में
हाथ ..
और फिर ,
पलक
झपकते ही
आ जाता है
वह क्षण
कहते हो
जब तुम
"अलविदा".....
समेट 
उन
अगण्य
पलों को
ज़हन में
अपने
भीगी 
पलकों
और
मुस्कुराते
लबों से
कर  देती हूँ
तुमको
'विदा'
गिनने
के लिए
सदियों से
लंबे
आगत
पलों को ,
सुकूँ भरा 
अगला
अगण्य पल
आने तक ....

गुरुवार, 3 जून 2010

कृष्ण: ---- एक सम्पूर्ण उपासना


#############

कृष्ण:----एक सम्पूर्ण उपासना

( क + ऋ+ ष + ण+ अ + : )

नहीं है कृष्ण
नाम ही केवल
हर अक्षर
में निहित
अर्थ है
'क' सूचक है
कमलकांत का
लक्ष्मीपति का
जो प्रतीक है

'ऋ' ध्वनि
होती
रकार की ,
राम नाम
को साधे
साधक
'ष' सूचक
षष्ट का
होता है,
ऐश्वर्यपति
विष्णु का
वाचक ...

'ण' या 'न'
नृसिंह का
द्योतक
मन प्राणों
का
बनता
बोधक
'अ' प्रतीक है
अग्नि तत्व का
है प्रमुख इस
जीवन सत्व का
' :' विसर्ग बना
द्विज बिंदु
मिल के
हैं प्रतीक जो
नर नारायण के

एक नाम में
सिमट गए हैं
लक्ष्मीपति,
राम और
नृसिंह
निहित आवाहन
इसी नाम में
सर्व संहारक
अग्नि का भी
नर-नारायण
देवदूत से
करते पूर्ण
ईश सुमिरन को
कृष्ण नाम
सम्पूर्ण उपासना
पावन कर दे
मानव मन को
 
...................