शनिवार, 8 मई 2010

विरह तेरा प्रिय...

विरह तेरा प्रिय...

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घिर आयी बदरी,
चमकी बिजुरी,
बरसी बरखा फुहार..
विरह तेरा प्रिय,
चीर गया हिय,
जैसे कोई कटार..

भीगी पवन की
शीतलता भी
ना छू पाए
तन को...
कुसुमित पुष्पों की
सुवास भी
ना बहकाए
मन को ...
साथ तेरा हो,
तब खिलती है,
मेरे हृदय बहार...
विरह तेरा प्रिय,
चीर गया हिय,
जैसे कोई कटार...

आँखें सूनी
बिन काजल के
उलझी लट
बालों की...
जाने लाली
कहाँ खो गयी
इन कोमल
गालों की..
निरखे जब तू,
तभी सुहाता,
मुझको निज सिंगार...
विरह तेरा प्रिय,
चीर गया हिय,
जैसे कोई कटार...

तेरे आने की
आहट से,
चहक उठी हैं
दिशायें....
रंगत ,चाहत की,
हर शै में,
हृदय, प्रेम लहराए
नृत्य कर उठे ,
मोर भी बन में,
कोयल गाये मल्हार
विरह तेरा प्रिय,
चीर गया हिय,
जैसे कोई कटार...

3 टिप्‍पणियां:

Deepak Shukla ने कहा…

Hi,

Ek aur Virah geet..

Aankh main aansu chhalte mere..
Jab bhi virah ke geet padhe..
Aise hi haalat main ab tak..
Hum to aksar jiya kiye..

Kavita bahut sundar hai.. Shabd kam hain tareef karne ke liye..

DEEPAK..

Avinash Chandra ने कहा…

bahut khubsurat bhav, adbhut pravaah ke sath.
Bahut hi achchhi kavita hai ye :)

rashmi ravija ने कहा…

आँखें सूनी
बिन काजल के
उलझी लट
बालों की...
जाने लाली
कहाँ खो गयी
इन कोमल
गालों की..
निरखे जब तू,
तभी सुहाता,
वाह वाह क्या बात है...बहुत खूब