रविवार, 23 दिसंबर 2018

मिजाज उलाहनों के !!



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होते हैं मिजाज कई
उलाहनों के ,
दिखते  है अक्स उनके
मक़सद और असर के
देने और पाने वालों के
रिश्तों के आइनों में,
या उभर आते हैं वे
जीने के कई अन्दाज़ हो कर....

होती हैं कुछ उम्मीदें
हमारे अपनों की ,
देते हैं उलाहने जब
उनके पूरा न होने पर
ज़ाहिर होता है
अपनापन उनका,
हो जाते हैं हम होशमंद
उनकी उम्मीदों के ख़ातिर
करने लगते हैं परवाह
और ज़्यादा
उनके जज़्बातों की.....

होते हैं कुछ उलाहने
अना और ग़ुरूर से लदे
तँज़ में पगे
ख़ुदगर्ज़ी में डूबे भी...
करने को साबित गलत
दूसरों को
दिखाने को नीचा औरों को,
ले लेना असर ऐसे उलाहनों  का
कर देता है बेतरतीब सोचों को
होते हैं ऐसे उलाहने पराये,
बचाये रखने के लिए खुद को
रहने देना होता है
बस पराया ही उनको....

और कभी कभी होते है उलाहने
मात्र रेचन ,
अपनी ही
नकारात्मक मनस्थिति के ,
नहीं होता है
कोई लेना देना इनका
किसी अन्य की गतिविधि से
करता है निर्भर
पाने वाले पर
इस नकारत्मकता का
अंत या विस्तार.....

होते है ना प्रेम भरे
झूठे से उलाहने कई
देने और पाने वालों को
गुदगुदाते हुये
उन्हें 'होने' का अहसास देते हुये
निरर्थकता ही उनकी
दे देती है अर्थ अनूठे
रिश्तों के गहरेपन को,
संबंधों की जीवंतता को,
मुस्कुराते हैं सभी
उलाहनों की चुहलबाज़ी पर
बिना किसी गिले शिकवों के
बहते हुये ये झरने प्यार के
भिगो जाते है रूहों को  ....

होता है मौन भी
उलाहना अनकहा
जब न आये कोई
पुकारने पर बार बार ,
ना दिखे कोई
जब हो तमन्ना ए दीदार,
तकी जाए राह हो के बेक़रार
झरोखे से झांका जाए बारंबार
करके अख़्तियार चुप्पी
रहे किसी के आने का इंतज़ार
दिल से दी जाए एक सदा
"आ मना ले मुझे ...ख़फ़ा हूँ मैं"....

खर पतवार.....




######
अंतरमन के
गहनत्तम अंधेरों में
प्रस्फुटित होते हैं
सोचों के बीज
कुछ होते हैं
गुणकारी
कुछ खूबसूरत
कुछ अच्छी नस्ल वाले
कई निहायत ही कमज़ोर
कुछ रोग भरे बीमारू
कई खिले खिले
कुछ तो उग आते हैं यूँ ही
बस खर पतवार से....

देख कर उजाले में
आत्म मंथन की खुरपी से
उखाड़ फेंकना होता है
समय समय पर
इन खर पतवारों को
जिससे हो सके
पोषित-फलित
सकारात्मकता के साहचर्य में
रचनात्मक चिंतन
और
महकते हुए खूबसूरत से
तरो ताज़ा सार्थक विचार...

बुधवार, 19 दिसंबर 2018

ख़यालों का सफ़र


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होती है रफ़्तार
ख़यालों के सफ़र की
कभी बेहद तेज़
सुपर सोनिक जहाज़ सी,
कभी धीमी
ज्यूँ चली जा रही हो
कोई बैलगाड़ी
गाँव के कच्चे रस्ते पर,
अड़ जाते हैं
ख़याल भी
बैलों की तरह
देख कर
संगीन हालात
फंस जाता है कभी
किसी खड्ड में
पहिया गाड़ी का,
बड़ी मेहनत से
उस अटकाव से उबर
आगे बढ़ता है सफ़र...

अक्सर होता है सफ़र
रेलगाड़ी के मानिंद
यहाँ से वहाँ
और हम पीछे
छूटते हुए लम्हों को
ट्रेन की खिड़की से
झांकते हुए
देखने की कोशिश में
गुज़र जाते हैं
कितने ही नज़ारों  से,
होते हुए बेक़रार
मुस्तक़बिल के लिए ...

आ जाता है पड़ाव
कुछ लम्हों का
सुकुनज़दा सा कोई ,
कभी कर देता है
फिक्रमंद
गुज़रना किसी
बियाबान से ....

एक स्टेशन से
दूसरे तक
जोड़े रखती हैं
कभी यादों की
कभी तसव्वुर की
पटरियां
जिनसे गुज़रते हुए
मुस्कुरा लेते हैं खुद में
भिगो लेते हैं नैन
कभी जी लेते हैं
दिल की गहराइयों में दबी
ख़्वाहिशों को
करते हुए बगावत
हक़ीक़त से ...

ख़यालों के सफ़र की
न हो भले ही
मंज़िल कोई
मगर सफ़र के दौरान
रहते हुए होशमंद
हो कर गवाह
हर राह और पड़ाव के
पहुंचा सकता है
यह सफ़र
मंज़िल-ए-मक़सूद तक......

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

सजदों का निशाँ


***************
मोहब्बत में तेरी,
डूबी हूँ इस कदर
जादू है तेरा
या कोई टोना है ....
दाग़ है माथे पर,
तेरे इश्क़ में होने का
सजदों का निशाँ है,
नहीं इसे धोना है ....

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

तराना दिव्य संगीत का


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देह आँगन की देहरी पर
थी धुनें कुछ ठहरी ठहरी
रुक गयी थी धमनियों में
अति अबूझ सी स्वर लहरी....

आरोह अवरोह का क्रम
था कुछ यूँ बहका बहका
ऐसे में अंदाज़-ए-महफ़िल
हो  कैसे चहका चहका....

पकड़ूँ "सा" तो लग जाता
"प" किसी अन्य ही सप्तक का,
बिखर जाते सुर मतवाले
सुन स्वर बेगानी दस्तक का...,

छिड़े थे तार मेरे दिल के
जब सुना था पहली बार तुझे
सफ़र सप्तकों का जीवंत
धड़कनें करा रही थी मुझे..

छुआ था तुम्हारे स्पंदनों ने
बस कर मेरे ही मस्तक में
सधी सरगम उस पल स्वत:
अनजाने मध्य ही सप्तक में....

छिड़ गई रागिनी शनै: शनै:
थे बहके हम फ़िज़ाओं में
बन संगीत अनोखा तुम
समा गये हो मेरी शिराओं में....

ख़र्ज, मन्द्र ,मध्य,तार में भटका
मन मयूर हुआ चंचल चलायमान
पाया तुम को संग साज़ ओ' आवाज़
मधुरिम राग हुआ था विद्यमान.....

घुल गए थे हम और घटित हुआ
तारतम्य सुर और गीत का
व्याप्त हुआ अस्तित्व में
कोई तराना दिव्य संगीत का....

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

अलमारी


**********

देखा था
‘अम्मा‘ को
रहते हुए मसरूफ 
ब्याह में साथ आई
शीशम की नक्काशीदार अलमारी को
सहेजते संजोते ....

सोचा करती थी मैं ,
क्या संभालती हैं
दिन भर इस पुरानी अलमारी में
दिखाती थी वो मुझे
अपने हाथ के बने
क्रोशिया के मेजपोश
कढ़ाई वाली बूटेदार चद्दर
और दादा के नाम वाले रुमाल ......

पापा के
पहली बार पहने हुए कपड़ों को
छूते  हुए छलक उठता था
वात्सल्य उनके रोम रोम से ,
और लाल हो उठते थे रुख़सार
मीना जड़े झुमकों को
कान पे लगा के
खुद को देखते हुए आईने में ,
हया से लबरेज़ आँखों को
मुझसे चुराते हुए बताया था उन्होंने
ये मुंह दिखाई में दिए थे “उन्होंने”....

मैं नादान
कहाँ समझ पाती थी उन दिनों
उस अलमारी से जुड़े
उनके गहरे जज्बातों को ,
सहेज ली है आज मैंने भी
एक ऐसी ही अलमारी
ज़ेहन में अपने .....

छूती रहती हूँ
जब तब खोल के
गुज़रे हुए सुकुंज़दा लम्हों को
कभी दिखाती हूँ किसी को
चुलबुलाहट बचपन की
जो रखी है
करीने से तहा कर
अलमारी के एक छोटे से खाने में...

एक और खाने में
जमाई है सतरंगी चूनर
शोख जवान यादों की
और कुछ तो
तस्वीरों की तरह सजा ली हैं
अलमारी के पल्लों पर ,
आते जाते नज़र पड़े
और मुस्कुरा उठूँ  मैं
अपने पूरे वजूद में ....

अलमारी के एक कोने में
लगती है ज़रा सी सीलन
लिए हुए नमी
उस भीगे हुए सीने की,
टूटा था बाँध
अश्कों  का
उस आगोश में समा कर ......

छू गया था दुपट्टा मेरा
जब आये थे वो 
घर मेरे पहली दफ़ा
महक रहा है अब तक
एक कोना अलमारी का 
उस छुअन की खुशबु से ......

बिखरी हैं यादें कितनी ही
बेतरतीब सी
बेतरतीबी उनकी
सबब है ताजगी का
सहेज लिया है चंद को
बहुत सलीके से
जैसे हो माँ का शाल कोई
छू  कर जिसे 
पा जाती हूँ वही ममता भरी गर्माहट.....

डाल दी हैं
कुछ अनचाही यादें
अलमारी के सबसे निचले तल पर
गड्डमड्ड करके
जो दिखती नहीं
लेकिन बनी रहती हैं वही,
हर पुनर्विवेचन के बाद
हो जाता है विसर्जन
उनमें से कुछ का,
कुछ रह जाती हैं
अगली नज़रसानी के इंतज़ार में ...

सीपियाँ जड़ी वो डब्बी
गवाह  है
उन पलों की
जहाँ बस मैं और वो
जी लेते थे कुछ अनाम सा,

गुजरना इस अलमारी के
हर कोने से
बन जाती है प्रक्रिया ध्यान की
और खो  जाती हूँ मै
समय के विस्तार में
दिन महीने सालों से परे
भूत ,भविष्य और वर्तमान को
एक-मेक करते हुए.......

 (अम्मा-मैं अपनी दादी माँ को कहा करती थी )

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

प्रेम इष्ट हो जाता है


*************
जो घटित हो रहा
पल प्रतिपल
लगता
ज्यूँ कोई मंचन है
पात्र हैं हम रचे हुए
करते अभिनय
बिन चिंतन है......

दिखता सबको वही मात्र
होता जो
दृष्टि के समक्ष,
तर्क वितर्क ज्ञान विज्ञान
जतलाते केवल वही पक्ष..

किन्तु कितना कुछ
अनजाना
रह जाता
नज़रों से ओझल,
सूक्ष्म रूप में विद्यमान
ना स्थूल
ना ही
वह है बोझल...

अनुभूति
इस सूक्ष्मतर की
करती
रहस्य उजागर है
लौट स्वयं तक
जाने को
स्व-चेतन विधि
कारगर है ....

प्रेम प्रार्थना
बन जाता
खुद प्रेम
इष्ट हो जाता है ,
अपना दीपक
ख़ुद बन जाना
जीवन अभीष्ट
हो जाता है......

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

बंजारन ...


########

देखा था
उसे सड़क किनारे
चूल्हा फूँकते
नज़र आए थे
आँच से तपे
ताम्बई चेहरे पर
सुर्ख हुए रुख़्सार
जगमगा रहे थे
जैसे उतर आए हों
अनगिनत आफ़ताब
झिलमिल पसीने की बूंदों में....

चाँदी की हँसली के पीछे से
गले की फूलती नसें
खा रही थी बल
शिव के गले में लिपटे
नागों सी...

चाँद ,तारे ,फूल बूटे
शंख,त्रिशूल,चक्र,डमरू
किसुन, गनेस के
गुदनों से सजे
अंगों पर उसके
दिख रहा था
उसका
और
उसके 'वो' का नाम भी
यूँ लगता था
ज्यूँ उकेर दिया है
बदनिन* ने
सारा ब्रह्मांड
इर्द गिर्द उसके संसार के ...

बांसों पर टिका
प्लास्टिक की चादर से बना घर
अलमुनियम के टूटे मुचे बर्तन
हाथ के कढ़े सिले कपड़े
कुछ साबुत
कुछ फटेहाल,
गुदड़ी में सो रहा था
उसका नन्हा लाल
देख लेती थी वो बरबस
भर भर निगाह
मुस्कुराते हुए मासूम को
और चमक जाता था
एक मुकम्मल एहसास
जीवन से भरी उन आँखों में....

बदनिन-गोदना गोदने वाली

रविवार, 18 नवंबर 2018

पुष्पों से ही सीख सकें


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चंचल पवन की तान पर
गुनगुना रहे हैं भँवरे
खिली है कली स्पर्श पाकर
फूल भी है संवरे संवरे ....

मदमस्त मधुकर मधुपान से
डोल रहे हैं डाली डाली
कमसिन कलियाँ किलक कर
झूम रहीं हो कर मतवाली ....

दिल है मेरा भ्रमर की गुंजन
गुनगुनाता तेरे लिए
फूल खिला दूँ हर शै में मैं
जो मुस्क़ा दे तू, मेरे लिए....

गुनगुन गूंज गयी बगियन में
महक उठा प्रत्येक कण
अलि अभिसार से पूर्ण हुआ
गुंचों का हर एक क्षण...

बिखर गए जी कर यूँ जीवन
देकर सुगंध और नवरंग
पुष्पों से ही हम सीख सकें 
समग्र जीने के सहज ढंग ......

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

किया है अमृत का अनुपान


##########

भये पूरन सब अरमान
मेरी 'स्व' से हुई पहचान
अपना कहूँ कि कहूँ पराया
हर चेहरा अनजान
लौट सकी निज सत्व तक
किया है अमृत का अनुपान
मेरी 'स्व' से हुई पहचान....

कैसे जानूँ ,कैसे समझूँ
किससे कैसा नाता है
जुड़ ना पाया हिय से कोई
कोई तो कुछ कुछ भाता है
देखूँ नातों को और उबरूं
क्यूँ व्यर्थ करूँ अभिमान
मेरी  'स्व' से हुई पहचान....

सत्य सार्थक यही है जग में
खुशियाँ बाँटू, खुशियाँ पा लूँ
हर पल जागृत हो कर जी लूँ
हृदय गीत मधुरिम मैं गा लूँ
प्रेम निश्छल सरसे मन मेरा
हो रिश्तों का सन्मान
मेरी  'स्व' से हुई पहचान....

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

बुला रहा है कौन


~~~~~~~~~
अव्यवस्थित भीड़,
संबंधों का
कोलाहल...
सुनायी देती है
एक क्षीण सी पुकार
"चली आओ"!!!
खोजती हूँ स्रोत उसका
जाने अनजाने चेहरों में
जिये अनजिये रिश्तों में....

छाँव ममत्व की
देती है सुकून
द्वंदों की धूप में झुलसे
मन को
छुप जाती हूँ
माँ के स्नेहिल आँचल में
सोचते हुए
शायद यहीं है
यहीं कहीं है
जो बुला रहा है मुझको
देने सुकून
तभी होती है सरगोशी सी
कानों में मेरे
"चली आओ ".....

छोड़ कर
माँ की वत्सल गोद
नंगे पाँव चल देती हूं
ऊबड़खाबड़ रास्तों पर
तपती धूप में
सीखती हुई
कई हुनर जीने के
बीच सबके ,
गुम जाती हूँ
अपेक्षाओं और आग्रहों के
भ्रम जाल में ,
बन्ध जाती हूँ
एक अदृश्य डोर से
स्वयं को समझते हुए
अपरिहार्य
सोच लेती हूँ
यहीं तो है आवश्यकता मेरी
यहीं से तो बुला रहा था कोई ....

अचानक हो उठती है तीव्र
वो धीमी सी आवाज़
गूंज जाती है हर दिशा
"चली आओ,चली आओ"..!!

बदहवास सी मैं
दौड़ती हुई
इधर से उधर
भटकती हुई
आकाश से पाताल
कभी किसी से टकराती
कभी किसी को ठुकराती
कर उठती हूँ आर्तनाद
" बुला रहा है कौन ..."
फूट पड़ता है
आँखों के ज़रिए
झरना बन कर
वजूद मेरा....

और तब
एक मासूम नर्म एहसास
लपेट लेता है मुझे
मुझसे ही आती हुई आवाज़ बन कर
यहीं तो हूँ मैं
तुम्हारा ही 'स्वयं'
भूल बैठी हो जिसे तुम
दुनियादारी में
देखो न
कितना अकेला
कितना तन्हा हूँ मैं
तुम्हारे लौट आने के
इंतज़ार में व्याकुल....
चली आओ न तुम
खुद के पास
ख़ुदा के पास
और जान जाती हूँ
तत्क्षण
"बुला रहा था कौन ".....

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

एक अदेखी डोर...


~~~~~~~~~~~
है कैसा अनाम सा बन्धन
जुड़ कर पहुंचे यूँ स्पंदन
खींच रही मुझे तेरी ओर
एक अदेखी डोर....

जब जब चाहा
दूर हो जाऊँ
पास स्वयं के
तुझको पाऊँ
कैसे तुझसे
भाव छुपाऊँ
भीगी पलकों की कोर.....

प्रीतम आन बसे
हिय मेरे
बाकी सब
अनजाने चेहरे
हलचल दिल में
साँझ सवेरे
धड़कन करती शोर....

छाई थी
विरह रजनी काली
जगमग उजली
आयी दीवाली
सुबह की बेला
अरुणिम लाली
नाच उठा मन मोर....

नयन खुले
सुख-स्वप्न से जग कर
कलियों पर
मँडराते मधुकर
अलसायी किरणों से
सज कर
रची है मेरी भोर.....

होना जुदा
अब नहीं गवारा
सत्य भ्रम
सब हुआ विचारा
निश्चित शाश्वत
साथ हमारा
ओर नहीं कोई छोर
खींचे मुझको डोर.....

रविवार, 4 नवंबर 2018

हर सिम्त तुम ही


*************

ना जाने मुझको आज सजन
तुम याद बहुत क्यूँ आते हो
बंद करूँ कि अँखियाँ खोलूं मैं
हर सिम्त तुम्ही दिख जाते हो ......

धड़कन धडकन में गूँज रही
बातें मुझसे जो कहते थे
अक्षर अक्षर में डोल रही
जिस प्रीत में हम तुम बहते थे
पढूं तुम्हें या मैं लिख दूं
हर गीत में तुम रच जाते हो.....

लम्हों में युग जी लेते थे
कभी युग बीते ज्यूँ लम्हा हो
मैं साथ तेरे तन्हाई में
तुम बीच सभी के तन्हा हो
दिन मजबूरी के थोड़े हैं
तुम आस यही दे जाते हो....

हर सुबह का सूरज आशा की
चमकीली किरने लाता है
सांझ की लाली में घुल कर
इक प्रेम संदेसा आता है
सूरज ढलने के साथ ही तुम
बन चाँद मेरे आ जाते हो....

हर शै में साजन याद तेरी
तुम बिन हर पल यूँ लगता है
नैनों का भीगा सूनापन
ज्यूँ हृदय गीत बन ढलता है
सात सुरों की सरगम से
तुम अष्टम सुर बन जाते हो .....

शनिवार, 3 नवंबर 2018

एहसास

#########
कल अचानक
नींद में
जाने मुझे उसने
छुआ था ,
चला आया था वो
या उसके होने का
एहसास हुआ था .....

बुधवार, 31 अक्टूबर 2018

रूहानी एहसास


**************
गुज़र जाते हो तुम
यकायक
ज़ेहन की गलियों से ,
झलक जाता है
रूहानी एहसास
मोहब्बत का
वजूद से मेरे .....

सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

इक नई इबारत लिखती हूँ


~~~~~~~~~~~~~~~
दर्पण के सम्मुख जब आऊँ
इक नई इबारत लिखती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

बाबुल तेरा आँगन भी
मन दर्पण में  दिख जाता है
पल भर में ही सारा बचपन
नैनन में खिल जाता है
लाडो माँ की,पिता की बुलबुल
चहक चहक सी उठती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

आँखों में चंचलता गहरी
होंठों पर मुस्कान सजीली
भीगी कलियों सी कोमलता
और चाल बड़ी गर्वीली
साथ सजन का पा कर मैं
सतरंगी सपने बुनती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

ऋतुएं कितनी इस जीवन की
जी ली जिस घर आँगन में
उसे संवारूँ, उसे सजाऊँ
खुशियाँ भर मन प्रांगण में
संजो प्रीत रिश्तों की मन में
खुद को अब मैं रचती हूँ
कभी किशोरी,कभी यौवना
कभी प्रौढ़ा सी मैं दिखती हूँ...

शनिवार, 20 अक्टूबर 2018

तो फिर क्या है ...!!



########

बेचैनियां तेरी
कर देती हैं
बेचैन मुझ को
मेरे हमदम ,
बता मुझे
यह मोहब्बत नहीं
तो फिर क्या है.....!!

दर्द बहे आँसुओं या
अल्फ़ाज़ में
शिकायत तेरी
तुझी से
कर देना
उल्फ़त नहीं
तो फिर क्या है,,,,,,,,!!

भूल जाते हैं
सब कुछ
आकर के आग़ोश में
सुकूँ ही सुकूँ
मयस्सर हो जहाँ
वो जन्नत नहीं
तो फिर क्या है,,,,!!

हर बात तेरी
होती है महसूस
जस की तस
अल्फ़ाज़ों के परे मुझको
अपनी यह फ़ितरत नहीं
तो फिर क्या है....!!

घुल के
एक दूजे में
बहे जाते हैं लुटाने
खुशियां
सौगातों  की ये
बरकत नहीं
तो फिर क्या है....!!

हर मोड़ पर
मिल जाते हैं फिर फिर
न हो के जुदा
पूछे ये ख़ुदा से
ये उसकी लिखी
अपनी क़िस्मत नहीं
तो फिर क्या है,,,,,,!!

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2018

छोटे छोटे एहसास


**************
संजो कर
ख़्वाहिशों में
तुझको,
चलन दुनिया के
बदस्तूर निबाहे
जा रहे हैं हम ..….....

रविवार, 14 अक्टूबर 2018

एकमेव

**********

दी है दस्तक
हौले से
ब्रह्ममुहूर्त में ,
शरद ने
दर पे वसुधा के ..

भीगी सी हरीतिमा
घुल गयी है
साँसों में मेरी
महकाते हुए
मन प्राण मेरा ...

है प्रयासरत
प्रथम रवि-किरण
भेदने को
किला कुहासे का ....

लपेटे हुए
चादर धुंध की
कर रहे हैं
वृक्ष
उद्घोषणा
शीत के आगमन की..

धुंध और हरियाली
हलके से उजास में
जैसे कर रहे हों
प्रतिबिंबित
मेरे ही
हृदय  के भावों  को ..

एक नम सी अनुभूति
बिछोह की तेरे
पा कर विस्तार
मेरे अंतस से,
मानो पसर गयी है
ओस बन कर
कण कण पर,
और
यूँ हो गयी हूँ
एकमेव मैं
प्रकृति से
अस्तित्व से .......

बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

'वो'


####
हाथों में 'जोत' लिए
'देवालय' से
बढ़ी थी वो
सुनहरी दमक में
रूप के
परवान चढ़ी थी वो
मारियम सी
गिरजे के बाहर
रोशन करने
कायनात को
खड़ी थी वो
या किन्ही आँखों के
फ्रेम में
तस्वीर सी
जड़ी थी वो....

रविवार, 7 अक्टूबर 2018

यूँही बेबात

***********

मिल जाना अपना
यूँ ही बेबात
और फिर
कभी ना ख़त्म होने वाली
बातों की शुरुआत,
परे है
हर मन्तक
और
बहस मुसाहिबे से....😊

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

ख़्वाबों की मानिंद


**************

चलो मिल लेते हैं
मुंदी हुई
पलकों के पीछे
ज़ेहन के गलियारों में
ख़्वाबों की मानिंद ....

न होगी ख़बर
किसी को फिर
अपनी मुलाकात की ....

कुछ कह लेंगे अबोला
कुछ सुन लेंगे अनकहा
बस इतनी सी तो
जुंबिश है हर बात की....

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

इबादत मेरी.....


**********

नवाजिश करम और इनायत तेरी
तुमको जीना हुआ इबादत मेरी ...

हँसी होठों पे दिल में दर्द लिए
क़ाबिले दाद है लियाकत मेरी ...

रोकना कश्ती को ना है बस में उसके
मौजे सागर से अब है बगावत मेरी ...

लाख आगाह किया वाइज़ ने मुझको
डूबना इश्क में ठहरी थी रवायत मेरी....

हर इक इल्ज़ाम पे सर झुकता है
देगी गवाही खुद ही सदाक़त मेरी...

नाम शामिल था वफादारों में मेरा
आँखों में छलक आयी अदावत मेरी...

बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

बेतकल्लुफ दोस्त


***************
कोई वक़्त 
मुकर्रर कर दे 
यादों का अपनी 
बेवक़्त चली आती हैं 
हवाओं में खुशबू सी
बेतकल्लुफ दोस्त की मानिंद.....

शनिवार, 29 सितंबर 2018

मोम हूँ....

 ( मुझको इस रात की तन्हाई की धुन पर)
***************

जिस्म को रूह के पोशीदा रहे राज़ न दो
छेड़ पाये ना तराना-ए- दिल वो साज़ न दो.....

तेरी हसरत में गुज़ारी है शबे ग़म जग के
नींद आई है दर-ए- सहर पे,आवाज़ न दो ...

वस्ल रूहों का ना पाबंद हुआ जिस्मों से
है ये अंजाम-ए-मोहब्बत नया आगाज़ न दो ...

हमनशीं हो तुम ही हमराज़ हो मेरे जानां
ना चटक जाए ये दिल गैर से अंदाज़ न दो ....

जब निगाहों से ही जज़्बात छलक जाते हैं
नग़्मों में ढलती हैं ख़ामोशियाँ अलफ़ाज़ न दो ....

है निगाहों की मुझे नर्म तमाजत काफ़ी
मोम हूँ संगतराशी के सख़्त अंदाज़ न दो ....

है नज़र सू-ए-फलक ,उड़ना मगर नामुमकिन
पंख पे जीस्त रुकी है अभी परवाज़ न दो .....

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

भगवान नहीं ....


*************

रिश्तों के
अनचाहे मेले
खेल बहुत से
जिसमें खेले
नहीं हूँ
शामिल
अब बाजी में
बुजदिल हूँ
जाँफ़िशान नहीं....

जग रखता क्यों
मुझसे आशा
गढ़ गढ़ कर
खुद की परिभाषा
भूल कोई भी
हो सकती है
इन्सां हूँ
भगवान् नहीं ......

मकसद मेरा
खुद को जीना
पहन पैरहन
झीना झीना
करूँ लड़ाई
झूठ से कैसे
निर्बल हूँ
बलवान नहीं....

साथ है तेरा
मेरी ताक़त
इश्क़ हुआ अब
मेरी इबादत
दर पे खड़ा
लिए झोली खाली
दीन बहुत
धनवान नहीं  ...

जाँफ़िशान- जान लुटाने वाला

बुधवार, 26 सितंबर 2018

क्यूँ कर है....


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अंजाम-ए-इश्क़ अजीब क्यूँ कर है!!..
हासिल इसको सलीब क्यूँ कर है!!....

है नहीं वो मेरी लकीरों में
फिर भी मेरा नसीब क्यूँ कर है !!...

उसकी फ़ितरत नहीं मोहब्बत की
ग़ैर सा वो अदीब क्यूँ कर है !!..

हाथ छूटे ज़ुबाँ भी तल्ख़ हुई
दिल में अब भी रक़ीब क्यूँ कर है!!..

ख़ामुशी उसकी ज़ुल्म है मुझ पर
ऐसा ज़ालिम हबीब क्यूँ कर है !!!...


मंगलवार, 25 सितंबर 2018

क्या कहिये .....


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किया ज़िन्दगी में शामिल
हमपे ये इनायत क्या कहिये...
सरे बज़्म छेड़ती हैं
आँखों की शरारत क्या कहिये ...

नज़रों से समेटा मुझको
मूँद ली फिर पलकें
महबूब का मेरे, वल्लाह
अंदाज़े हिफाज़त क्या कहिये ....

ख़ामोशी ज्यूँ गा रही है
धड़कन में बसी ग़ज़लें
दरिया-ए - जज़्बात के
बहने की नफ़ासत क्या कहिये.....

रूहों का मिलन अपना
तोहफ़ा है इलाही का
तू मैं हूँ के मैं तू है
अपनी ये शबाहत क्या कहिये .....

रोशन है हर इक ज़र्रा
मशरिक़ से उठा सूरज
इक नूर बरसता है
इस दिन की वज़ाहत क्या कहिये.....

मायने -
शबाहत -similarities
वज़ाहत - भव्यता/सुंदरता

भूलना मुझको भी आसान नहीं...


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उदास हो रही है ख़ामोशी
सुन के उसको ,
कुछ उसको सुना कर जाना.....

भूलना मुझको भी
आसान नहीं है हमदम
मेरी यादों से मगर
खुद को मिटा कर जाना.....

सोमवार, 24 सितंबर 2018

छुअन...

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छुअन से
तेरे एहसासों की
पिघल रहा है
वजूद मेरा
और
बह रहा है
बाज़रिया आँखों के

रविवार, 23 सितंबर 2018

अनागत



झलक दिख जाए
अनअपेक्षित उसकी
रोम रोम में
सिरहन है
प्रतीक्षा में अनागत की
हो गयी पगली
बिरहन है.......

बुधवार, 19 सितंबर 2018

कसक और महक


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एक कसक
तुझसे दूर होने की
एक महक
तुझमें खुद को खोने की

दिखती दोनों ही नहीं
किसी को भी
बात है बस रूह के
महसूस होने की.......

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

नैहर

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छूट जाता है
बचपन
उस आँगन के
छूटने  के साथ ही
जहाँ खेली थी
लाडली
गुड्डे  गुडिया ....

जीती है
यथार्थ
जिसमें
जीवन नहीं
खेल
महज़
गुड्डे गुडिया का ...

किन्तु
जाते ही
नैहर
मिलती है
छाँव जब
माँ के आँचल की
बन जाती है
फिर से
वही नन्ही बच्ची
होती है
खुश जो
नन्हीं नन्ही 
बातों पर .......

छूट जाता है
जब वो ही नैहर
होते ही
दिवंगत
माता -पिता के
होने लगता है
एक बेटी को
महसूस
कि जैसे
छीन ली हो
किसी ने
वो धरती
जहाँ थी
उसकी जड़ें
जहाँ बीता था
उसका अनमोल
बचपन .....

तपते सूरज से
किसी पल में
तरसती है
फिर लाडो
अपना कहे
जाने वाले
किसी सुखद
ठौर के लिए
जहाँ मिल सके
उसे
माँ के आँचल की सी
शीतल छाँव ....

और हो जाती है
तब वो
हमेशा के लिए
बड़ी ......

रविवार, 16 सितंबर 2018

पागलपन


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मेरे पागलपन में
तेरा
यूँ पागलों सा
घुल जाना ,
समझदारी को
करता है
अक्सर
मजबूर
देखने को आइना .....😊

बोला-अबोला



बंध गयी हैं हदें
अपने
वक्त-ए-गुफ्तगू की
जबसे
फेर लेती हूँ
तेरी नज़्मों को
तस्बीह के दानों सा ,
और यूँ जप लेती हूँ
हर उस लम्हे को
जो गुज़ारा था
हमने
बोला अबोला
जिसके 
पाकीज़ा एहसास,
अनकहे अल्फाज़ से
जन्मी थीं 
नज्में बेहद .....

बुधवार, 8 अगस्त 2018

"नादाँ मैं"

अंजुरी भर के 
मोती
लाया था कोई
सागर तल से 
और मैं
लहरों की फेंकी 
टूटी सीपियाँ 
चुनने में व्यस्त थी....

गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

कभी हँसी बन झरती पीर....

जीवन अपना
जलधि जैसा
अथाह असीम
तरल ज्यूँ नीर,
कहीं चपलता
लहरों जैसी
कहीं बहुत
गहन गम्भीर ,
कहीं शांत है
बिलकुल मौन
कहीं सुरों सम
बजते तीर,
कभी परिपक्व
अबोल धैर्य है
कभी बालक
चंचल अधीर
सरल सहज
भावों का समन्वय
मिलन ,बिछोह
बेताबी ,धीर
कभी खुशी से
बहते आँसू
कभी हँसी बन
झरती पीर.....

रविवार, 7 जनवरी 2018

मुश्किल क्यों है आसां होना


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बेहिस भीड़ में इन्सां होना
मुश्किल क्यों है आसां होना....

तक़रीरें होती बात बात पर
जीते हैं बस शहो मात पर 
चतुर सुजानो की बस्ती में
कितना मुश्किल नादां होना....

मज़हब के झूठे अफ़साने 
लगे हैं ज़ेहन को भरमाने
हर शै पाएं कृष्ण मोहम्मद
मुश्किल इसका इमकाँ होना....

रूहें हैं जन्मों की संगी
जिस्म भले मशरे के बंदी
इश्क़ में उनके इश्क़ हो गए
मुश्किल अब तो मिन्हा होना.....

दुनिया जिसको टोक न पाए
राह तारीकी रोक न पाए
रोशन खुद जो जलवा हो कर
मुश्किल उसका पिन्हा होना.....

मायने-

बेहिस-असंवेदनशील
इमकाँ-संभावना
मशरे-समाज
मिन्हा-कम
तारीकी-अंधेरा
पिन्हा-छुपा हुआ

छोटे छोटे एहसास


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ख़्वाबों में 
बन हक़ीक़त 
चले आते हो क्यूं.
छुअन से 
रौं रौं को 
जगाते हो क्यूं....
बढ़ाती हूँ हाथों को 
कि छू लूँ तुम्हें 
न हो कर भी यूँ 
पास आते हो क्यों......