शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

अलमारी


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देखा था
‘अम्मा‘ को
रहते हुए मसरूफ 
ब्याह में साथ आई
शीशम की नक्काशीदार अलमारी को
सहेजते संजोते ....

सोचा करती थी मैं ,
क्या संभालती हैं
दिन भर इस पुरानी अलमारी में
दिखाती थी वो मुझे
अपने हाथ के बने
क्रोशिया के मेजपोश
कढ़ाई वाली बूटेदार चद्दर
और दादा के नाम वाले रुमाल ......

पापा के
पहली बार पहने हुए कपड़ों को
छूते  हुए छलक उठता था
वात्सल्य उनके रोम रोम से ,
और लाल हो उठते थे रुख़सार
मीना जड़े झुमकों को
कान पे लगा के
खुद को देखते हुए आईने में ,
हया से लबरेज़ आँखों को
मुझसे चुराते हुए बताया था उन्होंने
ये मुंह दिखाई में दिए थे “उन्होंने”....

मैं नादान
कहाँ समझ पाती थी उन दिनों
उस अलमारी से जुड़े
उनके गहरे जज्बातों को ,
सहेज ली है आज मैंने भी
एक ऐसी ही अलमारी
ज़ेहन में अपने .....

छूती रहती हूँ
जब तब खोल के
गुज़रे हुए सुकुंज़दा लम्हों को
कभी दिखाती हूँ किसी को
चुलबुलाहट बचपन की
जो रखी है
करीने से तहा कर
अलमारी के एक छोटे से खाने में...

एक और खाने में
जमाई है सतरंगी चूनर
शोख जवान यादों की
और कुछ तो
तस्वीरों की तरह सजा ली हैं
अलमारी के पल्लों पर ,
आते जाते नज़र पड़े
और मुस्कुरा उठूँ  मैं
अपने पूरे वजूद में ....

अलमारी के एक कोने में
लगती है ज़रा सी सीलन
लिए हुए नमी
उस भीगे हुए सीने की,
टूटा था बाँध
अश्कों  का
उस आगोश में समा कर ......

छू गया था दुपट्टा मेरा
जब आये थे वो 
घर मेरे पहली दफ़ा
महक रहा है अब तक
एक कोना अलमारी का 
उस छुअन की खुशबु से ......

बिखरी हैं यादें कितनी ही
बेतरतीब सी
बेतरतीबी उनकी
सबब है ताजगी का
सहेज लिया है चंद को
बहुत सलीके से
जैसे हो माँ का शाल कोई
छू  कर जिसे 
पा जाती हूँ वही ममता भरी गर्माहट.....

डाल दी हैं
कुछ अनचाही यादें
अलमारी के सबसे निचले तल पर
गड्डमड्ड करके
जो दिखती नहीं
लेकिन बनी रहती हैं वही,
हर पुनर्विवेचन के बाद
हो जाता है विसर्जन
उनमें से कुछ का,
कुछ रह जाती हैं
अगली नज़रसानी के इंतज़ार में ...

सीपियाँ जड़ी वो डब्बी
गवाह  है
उन पलों की
जहाँ बस मैं और वो
जी लेते थे कुछ अनाम सा,

गुजरना इस अलमारी के
हर कोने से
बन जाती है प्रक्रिया ध्यान की
और खो  जाती हूँ मै
समय के विस्तार में
दिन महीने सालों से परे
भूत ,भविष्य और वर्तमान को
एक-मेक करते हुए.......

 (अम्मा-मैं अपनी दादी माँ को कहा करती थी )

9 टिप्‍पणियां:

  1. अप्रतिम यादों को सहेजता मन वहीं कहीं अटका टका सा।
    बहुत ही सुंदर रचना।

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  2. बहुत प्यारी रचना प्रिय मुदिता जी | मुझे भी अपनी दादी यानी अम्मा का लकड़ी का सन्दुक याद गया ,जो मेरे लिए बचपन में असीम कौतुहल का विषय था | हम लोग भाग्यशाली हैं जिन्होंने इतना सुंदर बचपन जिया है | सस्नेह शुभकामनायें | आपके ब्लॉग पर पहली बार आकर अच्छा लगा | आभार सखी |

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार, जुलाई 02, 2019 को साझा की गई है पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. यादों को सहेजता जीवन और सुंदर सा यह प्रकटीकरण .... बेहतरीन ।

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  5. वाह!लाजवाब!!अलमारी में सहेजी हुई यादें ,कभी हँसाती ,कभी रुलाती ..।

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