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जो घटित हो रहा
पल प्रतिपल
लगता
ज्यूँ कोई मंचन है
पात्र हैं हम रचे हुए
करते अभिनय
बिन चिंतन है......
दिखता सबको वही मात्र
होता जो
दृष्टि के समक्ष,
तर्क वितर्क ज्ञान विज्ञान
जतलाते केवल वही पक्ष..
किन्तु कितना कुछ
अनजाना
रह जाता
नज़रों से ओझल,
सूक्ष्म रूप में विद्यमान
ना स्थूल
ना ही
वह है बोझल...
अनुभूति
इस सूक्ष्मतर की
करती
रहस्य उजागर है
लौट स्वयं तक
जाने को
स्व-चेतन विधि
कारगर है ....
प्रेम प्रार्थना
बन जाता
खुद प्रेम
इष्ट हो जाता है ,
अपना दीपक
ख़ुद बन जाना
जीवन अभीष्ट
हो जाता है......
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 04 दिसम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना 👌
जवाब देंहटाएंवाह बेमिसाल आध्यात्मिक चिंतन देती रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण..
जवाब देंहटाएंवाहहह वाहहह अति सुंदर👌
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति ...शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ��
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