मंगलवार, 13 नवंबर 2018

बुला रहा है कौन


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अव्यवस्थित भीड़,
संबंधों का
कोलाहल...
सुनायी देती है
एक क्षीण सी पुकार
"चली आओ"!!!
खोजती हूँ स्रोत उसका
जाने अनजाने चेहरों में
जिये अनजिये रिश्तों में....

छाँव ममत्व की
देती है सुकून
द्वंदों की धूप में झुलसे
मन को
छुप जाती हूँ
माँ के स्नेहिल आँचल में
सोचते हुए
शायद यहीं है
यहीं कहीं है
जो बुला रहा है मुझको
देने सुकून
तभी होती है सरगोशी सी
कानों में मेरे
"चली आओ ".....

छोड़ कर
माँ की वत्सल गोद
नंगे पाँव चल देती हूं
ऊबड़खाबड़ रास्तों पर
तपती धूप में
सीखती हुई
कई हुनर जीने के
बीच सबके ,
गुम जाती हूँ
अपेक्षाओं और आग्रहों के
भ्रम जाल में ,
बन्ध जाती हूँ
एक अदृश्य डोर से
स्वयं को समझते हुए
अपरिहार्य
सोच लेती हूँ
यहीं तो है आवश्यकता मेरी
यहीं से तो बुला रहा था कोई ....

अचानक हो उठती है तीव्र
वो धीमी सी आवाज़
गूंज जाती है हर दिशा
"चली आओ,चली आओ"..!!

बदहवास सी मैं
दौड़ती हुई
इधर से उधर
भटकती हुई
आकाश से पाताल
कभी किसी से टकराती
कभी किसी को ठुकराती
कर उठती हूँ आर्तनाद
" बुला रहा है कौन ..."
फूट पड़ता है
आँखों के ज़रिए
झरना बन कर
वजूद मेरा....

और तब
एक मासूम नर्म एहसास
लपेट लेता है मुझे
मुझसे ही आती हुई आवाज़ बन कर
यहीं तो हूँ मैं
तुम्हारा ही 'स्वयं'
भूल बैठी हो जिसे तुम
दुनियादारी में
देखो न
कितना अकेला
कितना तन्हा हूँ मैं
तुम्हारे लौट आने के
इंतज़ार में व्याकुल....
चली आओ न तुम
खुद के पास
ख़ुदा के पास
और जान जाती हूँ
तत्क्षण
"बुला रहा था कौन ".....

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 17 नवम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. और तब
    एक मासूम नर्म एहसास
    लपेट लेता है मुझे
    मुझसे ही आती हुई आवाज़ बन कर
    यहीं तो हूँ मैं
    तुम्हारा ही 'स्वयं'
    भूल बैठी हो जिसे तुम
    दुनियादारी में👌👌👌 बहुत ही बेहतरीन रचना

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  3. वाह स्व से स्व का मिलन ।
    बहुत सुंदर एक अदम्य प्यास मरीचिका का भ्रम और सब स्वयं के भीतर ।

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