बुधवार, 28 दिसंबर 2011

हो पाते तुम काश यहाँ !!

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पर्वत पर हैं ठहरे बादल
खग पेड़ों पर रुके हुए
झील का ठहरा पानी कहता
हो पाते तुम काश यहाँ !

आसमान भी सूना सा है
बहते बहते थमी पवन
मूक धरा निश्चल हो कहती
हो पाते तुम काश यहाँ !

कण कण में गुंजार रही
हृदय कामना बिन बोली
मैं ही बस ये ना कह पाती
हो पाते तुम काश यहाँ !

नज़रें मेरी आतुर क्यूँ हैं
स्पर्श तेरा अनुभूत हृदय में
बसे हो मुझ में फिर क्यूँ चाहूँ
हो पाते तुम काश यहाँ !



4 टिप्‍पणियां:

Nidhi ने कहा…

काश.............

दीपक बाबा ने कहा…

काश से ही बात शुरू होती है और काश पर खत्म.

Anita ने कहा…

प्रेम तभी तो अबूझ है...मिलकर भी नहीं मिला जैसा लगता है...न मिलकर मिला जैसा...

Rakesh Kumar ने कहा…

नववर्ष की आपको हार्दिक शुभकामनाएँ.

काश!.....