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उठा कर
नींद की गोद से
उस सहर
भर लिया था
मुझे
अपने ही
साये ने
आगोश में
खुद के ,
खुलने से पहले ही
पलकों को
कर दिया था
बंद
नरम गरम
छुअन से
अपनी ,
पिघल गयी थी मैं
गुनगुनाती सी
घुल जाने को,
मोम की मानिंद,
ना जाने
घुला था
वो मुझमें
या कि
मैं उसमें,
पसर गयी थी
फ़िज़ा में
महक लोबान की'
मस्जिद से
गूंजी थी
अजान ,
और
मंदिर से
उठे थे स्वर
आरती के ,
फूल खिले थे
पत्ते थे सरसराये
कलरव किया था
पखेरुओं ने ,
गा रहा था जोगी
प्रभाती
कर रही थी मैं
बातें खुद से ,
या खुदा !!
मेरे मौला !!
ये एहसास था क्या
तेरे आ जाने का ?
2 टिप्पणियां:
रोमांटिक...स्वीट और मासूम!! :)
बहुत गहन आध्यात्मिक अनुभूति! अति सुंदर शब्दावली में पिरोये भाव!
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