सोमवार, 19 नवंबर 2012

कैसी है यह भोर...


# # #

बूटे बन कर
जौहरी,
लिए मोती
अपने
पत्तों सी
हथेलियों पर,
देखो आ खड़े हैं
बाजार में
लगाए अपनी
व्याकुल दृष्टि
उसकी चंचल
सहेलियों पर..

कैसी है
यह भोर
डोल रही है
साँसे
बन कर
तेज हवा का
झोंका,
प्राणों का
विश्वास
डगमगाया
किसको
ऐसा मिल गया
मौका ......

कैसे जाने
कोई,
जमना तट पर
बज रही
बंसी
कान्हा की
सुनकर
खोल रही
वातायन
पीड़ा
राधा की .....

अरे ! ये रजनी
क्यों बहा रही है
आंसू
लेकर
मेघों की झीनी
ओट,
साजन
तुम क्यूँ चले ना आये
सहलाने
अपनी प्रिया की
चोट....


गुरुवार, 8 नवंबर 2012

जब जब अपनाता कोई और....



आसमान
पाताल
औ'
पर्वत
ओस
तुषार हो
या फिर
बादल
जल
बस
होता है
केवल जल ....

कभी वो
बनता
बहता दरिया ,
बने कभी
एक शांत
सरोवर,
झील गहन
कभी
कूप रूप कभी
है असीम
कभी एक सागर..

पा लेता
लघु और लघुतम
आकार
घट या सुराही में
कभी चसक,
कभी प्याला
हो कर ,
दिखता
दूजी एक परछाई में ....

अमृत में जल
जल हाला में
भिन्न नहीं
निहितार्थ,
आकार-प्रकार तो
निर्भर करता
हो जैसा
पात्र-पदार्थ

जल बस
होता है
केवल जल
अलग अलग
होते हैं ठौर,
काल -परिस्थिति की
भिन्नता में
जब जब
अपनाता
कोई और ....

बुधवार, 7 नवंबर 2012

कहाँ है दूरी....

पल पल साथ
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!

विलय हुईं
सागर में
नदियाँ ,
विरह में
गुजरी
कितनी
सदियाँ ,
जीवन कर्म
निभाने को
वाष्पन भी
है जरूरी ...

निशा दिवस
इक साथ सदा
सीमित दृष्टि में
जुदा जुदा ,
जिस पल में
उजला दिन
दिखता
क्षण उसी में
रजनी गहरी ....

पल पल साथ
कहाँ है दूरी
विदा हुए
कैसी मजबूरी ....!

शनिवार, 3 नवंबर 2012

नयी-पुरानी जितनी गांठें .....

गांठे ,कितनी उलझी गांठें !!

मन की चादर के सब धागे
उधड़े -बिखरे सुलझे उलझे
सिरा पकड़ जब खींचूं मैं
लग जाती हैं कितनी गांठे !

कुछ प्रमाद के कारण लगतीं
कुछ न जाने लगती क्यूँ कर
सजग रहूँ यदि, दिख पाएंगी
नयी-पुरानी जितनी गांठें .....

बुनना है अपनी चादर को
गाँठ रहित समतल व कोमल
इक इक धागा पकड़ पकड़ कर
सुलझा पाऊँ मनुआ गांठें ....

गांठे , कितनी उलझी गांठें
धैर्य से मेरे सुलझी गांठें
नहीं रहेंगी , नहीं टिकेंगी
ये अधसुलझी ,कुंठित गांठें

गांठें , कितनी उलझी गांठें ..!!! 

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

पाने को मूल स्वरुप .....

करते जाते हैं
सतत जतन हम
करने को सिद्ध
स्वयं को,
लाया जाता है
परिवर्तन
निज व्यवहार में
अनुरूप
अन्यों की पसंद के

होता है घटित
रूपांतरण
अंतस में जब हमारे
दिखते हैं
उसके बिम्ब
स्वयं ही
हमारे कृत्यों में
बिना किसी उपक्रम के,

हो कर जागरूक
खुद पर ओढ़े हुए
आवरणों के प्रति ,
हो सकते हैं हम
मुक्त उनसे
पाने को
मूल स्वरुप
स्वयं का
है जो
सहज ,
सरल
और
करुणामय
सदृश
उस परम के ......



सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

राधा हूँ मैं....



"राधा हूँ
मैं,
पाया है
मैंने
स्वयं में
कृष्ण को,
हुआ है
घटित
सहज समर्पण
जा कर परे
नीतियों
एवं
युक्तियों से ......

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

हे आद्या !!

#####


उकसाता है मुझको
अहम् मेरा
करने को साबित
क्षमताएं मेरी,
भूखा है
दुनिया की वाहवाही का ,
प्यास है इसे
तथाकथित पहचान
पाने की ...
डाल कर अपनी
सुप्त इच्छाओं पर
आवरण
प्रेम,
चिंता ,
त्याग और कर्तव्य के
करती रहती हूँ मैं
पोषित
अपने इस
बकासुर से अहम् को ..


किन्तु ,
करते ही अलग
स्वयं से
दिख गयी है मुझे
वस्तुस्थिति
और
वास्तविकता
इस तथाकथित
अस्तित्व की ...
मैं तो हूँ मात्र
एक अंश तुम्हारा
हे आद्या !
जानती हो तुम ही
मेरी क्षमताओं को
किया है प्रदान जिन्हें
तुम ने ही ..
कब और कहाँ
होना है
मेरे द्वारा
सदुपयोग उनका
करती हो निर्धारित
तुम्ही ,केवल तुम्ही ....

आद्या - माँ शक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ एक नाम ... 

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

राज़ है यही...(आशु रचना )

# # #
घुलते हैं किनारे
संग संग
दरिया के बहाव के
बिना खोये
वजूद अपना ...

हो जाते हैं
कभी कहीं दृढ
देते हुए
एक स्पष्ट दृष्टि
नदी को
दिशा निर्धारण की...

करते हुए महसूस
वजूद किनारों का
बहे जाती है नदी
अपने सतत प्रवाह में
रखते हुए
सहज संतुलन
गति का अपनी ....

राज़ है यही
ठहराव और
बहाव के
करार का ..
सह-अस्तित्व के
स्वीकार का ...




शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

उस पार का बुलावा....



भर तो गए थे ज़ख्म
टीस मगर बाकी थी
बा-होश रहा मयकश
मदहोश हुई साकी थी

लफ़्ज़ों ने तराशा था
पत्थर चमक रहे थे
खुली अधखुली सी आँखें
कैसी ये बेखुदी थी ..

वो नहीं था अक्स मेरा
दिखता रहा जो सबको
चाहत थी आब-ए-जन्नत
दुनियावी तिश्नगी थी ...

नाखुदा बनी वो कश्ती
भंवर में जो खुद पड़ी थी
उस पार था बुलावा
लेकिन अना अड़ी थी

रविवार, 9 सितंबर 2012

आवरण और आचरण ....



जाने क्यों
ओढ़ लेते हैं हम
कैसे कैसे आवरण ,
भिन्न रहता है
निज चिंतन से
हमारा आचरण

अंतर
कथनी और करनी का
पाट नहीं
हम हैं पाते
बस किताबी बातें ,
शब्दों में
हम दोहराते

संकल्प हृदय में
दृढ यदि तो
है प्राप्य
मार्ग धर्म का,
हो सजग
कर दें समापन
अंतर
चिंतन-कथ्य-कर्म का

शनिवार, 25 अगस्त 2012

कर सकूँ सहज मैं क्षमा स्वयं को...


# # # #

पूर्व करने के
क्षमा अन्य को
कर सकूँ सहज मैं
क्षमा स्वयं को ...

ग्लानि में मैं
डूब ना जाऊँ
देखूं सजग
दोष को अपने
सुधार करूँ
त्रुटियों का जड़ से
खों ना दूँ मैं
होश को अपने ..

ना पालूँ
वैमनस्य को मन में
भूला सकूँ
अप्रिय कृत्यों को
पश्चाताप में
तप कर निकलूं
करुणा भाव
निज हृदय सक्रिय हो ...

ना समझूँ श्रेष्ठ
औरों से खुद को
हीन भाव
घर ना कर पाए
सहज स्वीकार करूँ
मैं निज को
फल 'अहम् ' पके
पक कर झर जाए ...

शब्दों में
की गयी क्षमा
बस कांटे जीवन में
बोती है,
निर्मल करती
क्षमाशीलता
सच्चे दिल में
जब होती है

हर प्राणी से
मैत्री मेरी ,
मेरी भूलें
क्षमित हो
सब से ,
संग अस्तित्व
एक तारतम्य हो,
क्षमावान हो सकूँ
हृदय से...

बर्फ....(एक नैनो )

अब्र-ए-अना ने
बरसाई थी
इक आग सी
हरदम ,
मिली है वो ही
जमी जमी
बर्फ जैसी
अपने रिश्तों पर
अल सुबह ...

अब्र-ए-अना- अहम् का बादल

चंद घड़ियों के पड़ाव .....


# # # #
होती है मुश्किल
मान लेते हैं
जब हम
शाश्वत
मोह -माया
और
ऐन्द्रिक सुखों को,
बन जाते हैं वे
बंधन
नागफांस से,
बीत जाता है
पूरा जीवन
ढ़ोने
निबाहने
और
बरबस जीने में
उनको ...


हो कर चेतन
क्यों ना जिये हम
जग को
पूरे होशो हवाश के संग,
आत्मसात करके
इस सच को कि
कुछ भी नहीं
चिरस्थायी यहाँ,
देखो ना
खिलता है फूल
मुरझाता है
और
जाता है झर भी,
नहीं करते ना
हम विलाप
उसकी मौत पर
करते हैं
यद्यपि प्रेम
फूल के
सौन्दर्य और सौरभ से
देता है जो
अनिर्वचनीय
प्रसन्नता हम को...


किया था
दमन
बुद्ध ने भी
घोर तपस्या कर
अन्न जल छोड़ कर
किन्तु
स्वीकारा था
उन्होंने भी
सुजाता की खीर को
हुआ था उजागर
सत्य कि
होने देहातीत
देह का
अनुपालन भी है
अनिवार्य...


नहीं है
मार्ग धर्म का
पलायन
जग से ,
कर देना त्याग
सभी खुशियों का
और
जीते रहना
एक नीरस
रूखा सा जीवन,
हो कर सजग
जीयें समग्र
जाने और मानें
हम
अस्थायी है यहाँ
सब कुछ....


नाव है मात्र
यह देह
यह ध्यान
यह साधना
यह धर्म
उस पार जाने हेतु,
जाकर उस पार
लादे फिरेंगे हम
उनको
यदि कंधे पर अपने
होगा वह
एक मूढ़ कृत्य हमारा...


खिलाता है
सौन्दर्य अस्तित्व का ,
हमारे आंतरिक सौन्दर्य को,
सहज ऐन्द्रिक सुख
हैं बस
मरुस्थल में
शाद्वल,
हम तो हैं ना
एक लम्बी
अंतर्यात्रा पर ,
हो सकते हैं वे
चन्द घड़ियों के
पड़ाव हमारे
तनिक सुस्ताने को
ना कि
मंज़िले मक़सूद हमारी...




(शाद्वल=नखलिस्तान /oasis , मंज़िले मक़सूद =अभीष्ट गंतव्य )

24/07/2012

मंदिर-मस्जिद क्यूँ जाऊं...!


######

रातरानी की
मादक महक
हो तुम ..
शाखों की
चंचल लहक
हो तुम ..

हो सितारों की
जगमगाहट..
पत्तियों की तुम
सरसराहट ..

मनमोहिनी रंगत
फूलों की ...
मीठी सी चुभन हो
शूलों की ..

हरी दूब की
कोमलता
बरखा बूंदों की
शीतलता ...

मृग की
मासूम आँखों में
मोर की
सतरंगी पांखों में ...

हो कोयल के
गान में तुम
प्रीत की मधुरिम
तान में तुम ...

नज़र मैं डालूँ
जहाँ जहाँ
मिल जाते हो तुम
वहां वहां ...

सब कुछ में तुमको मैं पाऊं
मंदिर-मस्जिद क्यूँ जाऊं !


रविवार, 19 अगस्त 2012

शब्द नहीं मैं मौन हूँ....

#####


बूझ रही हूँ
परे देह से.
आख़िर को
मैं कौन हूँ
शब्द नहीं ,
मैं मौन हूँ ...!


जुड़े थे कितने
नाते रिश्ते
जीवन के
हर मोड़ पर ,
कुछ तो
संग चले थोड़ा ,
कुछ जुदा हो गए
छोड़ कर
मेरा निज
ढूंढें उनमें
मैं कहाँ छुपी ,
मैं कौन हूँ
शब्द नहीं ,
मैं मौन हूँ !!


जीवन के
रंग -मंच पर
जिये पात्र
कितने सारे
कहीं लगा कि
जीत गए हम
कभी लगा
खुद से हारे,
सत्व छुआ
जिस पल
निज का
एहसास हुआ
मैं कौन हूँ ..
शब्द नहीं
मैं मौन हूँ ...



रविवार, 12 अगस्त 2012

बीज शब्दों के..


# # #
होते हैं
कुछ और ही
निहित अर्थ
अभिव्यक्ति के ,
बोते हैं
जब जब
बीज हम
शब्दों के...


जब हो कर
घटित
किसी रचना में
लहलहाती है
फसल शब्दों की
काटता है
हर पाठक
उसे मानो
अपने अर्थों की
दरांती से ....

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

जगती आँखें....

छू कर
तेरा मन
ओ साजन !
हृदय को मेरे
मिलती पांखें ,
साथ हमारा
नहीं है सपना
मुंदी हुई हैं
जगती आँखें ....


शब्द जाल का
नहीं है बंधन ,
प्रतिबद्ध भाव
अनुभूति है ,
गहन प्रेम
मुखर कभी तो
कभी
मौन अभिव्यक्ति है ....


हार गए हम
अपने 'मैं' को ,
जीत की
ना अब
कोई चाहत
'तुम' 'मैं' का
हर भेद मिट चुका
'हम' हो कर
है पाई राहत ...


पतझड़ बीता
कोंपल फूटी
पुष्प श्रृंगारित
हैं सब शाखें ,
साथ हमारा
नहीं है सपना
मुंदी हुई हैं
जगती आँखें...

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

कौन है ....

#####

निगाहें शांत 
और 
स्वर उसका 
मौन है ..
सरगोशी 
कानों में
फिर कर रहा कौन है....!

खिले नहीं 
बगिया में,
जूही या मोगरा ,
साँसों में 
महक सी 
फिर भर रहा कौन है ...!

साज़ नहीं 
दिखता ,
आवाज़ गुम है जैसे,
बन सुर 
हृदय का मेरे 
फिर बज रहा कौन है ...! 

बादल नहीं
फलक पे ,
बरखा भी राह भूली ,
अमृत की 
बूंदों जैसा ,
फिर झर रहा कौन है ...!



गुरुवार, 26 जुलाई 2012

करने साकार सब सपने....

#####


कहे जाते हो
हाले दिल
बिठा कर
सामने अपने
नज़र उठती नहीं मेरी
मुखर अब
हो चले सपने......

उमड़ता है
ना जाने क्या
हृदय के
अन्तरंग तल से
छुअन होती है
रूहों की ,
नयन
भर जाते हैं
जल से ...

नहीं है
वक़्त की सीमा
हैं होते साथ
जब भी हम ,
कभी बीते सदी
पल में,
कभी पल से
सदी भी कम ....

किये हैं पार
कई सोपान
हमने संग
मेरे हमदम ,
मिली हर
राह पे खुशियाँ
छोड़ हर मोड़ पर
सब ग़म ....

करने साकार
सब सपने
दिलो में
जो पले है,
सजग ले हाथ
हाथों में
हो चेतन
हम चले हैं .........

समवेत.......

दिखते बाहर हैं
रंग अनेकों
अंतस है
शुभ्र श्वेत
गुंजारित है
हर कण में
सुर अपना
समवेत ....

सावन की
बूंदों ने देखो
हर पात का
चेहरा धुला दिया
झुलसा मन ,
तन धूल अटा था
सहज ही
सब कुछ
भुला दिया
मौसम ,
जीवन में देता है
परिवर्तन संकेत...

इन्द्रधनुष के रंग
हैं अपने
हरी धरा
नभ नील के
सपने
जीवन में
सब वही है
मिलता
जो होता अभिप्रेत ....

मोह माया से
हो निर्लिप्त
मन लिप्साओं से
मुक्त हुआ,
निज-पर के
सब भाव तिरोहित
सहज प्रेम से
युक्त हुआ
है सकल जगत
निकेत उसी का
जो होता अनिकेत ...

जो जैसा है
वैसा ही जब ,
हमने था
स्वीकार किया ,
गिरे आवरण
सहज रूप में
निज को
अंगीकार किया
मूल सत्व ही
परम तत्व है
घटित जहाँ अद्वेत ...
गुंजारित है
हर कण में
सुर अपना
समवेत ....

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

पुरानी गर्द .....


इतने जन्म ,
इतने साल,
इतने महीने,
इतने दिन ,
इतनी भीड़ ,
इतने सच ,
इतने झूठ,
इतने पाप ,
इतने  पुण्य,
ना जाने क्या क्या !
लदे हुए हैं
हम  पर
जाने अनजाने
पुरानी गर्द की मानिंद ...

बन गए हैं
इस गर्द पर
नक़्शे-कदम
गुज़रे वक़्त के,
नाजुक लम्हात के
कठिन हालात के ,
बन गए हैं
हम वो
जो हम नहीं ,
दर-असल
भुला बैठे हैं हम
सूरत और सीरत
खुद की ...

आओ ना !
मिटा दें
झाड़ कर
ना जाने
कब से जमी
इस धूल को ,
जान लें और छू लें ,
अपने उस वजूद को ,
जो हैं हम
महज़ हम ....

समर्पण...

# # #


समर्पण
होता है घटित
सहज ही ,
नहीं है यह
कोई क्रिया
किया जाता हो
सप्रयास
जिसे
द्वारा किसी
कर्ता के ....

किया जाता है
कभी त्याग
चढ़ा कर आवरण
समर्पण का
और
होती है चाहत
त्याग के
अभिज्ञान की

सप्रयास किया
अहंकार जनित
छद्म समर्पण
होता है कभी
दान स्वरुप
दानी होने का
दंभ लिए ...

समर्पण
है पिघलना
बिना किसी
प्रयास के,
नहीं है यह
निर्भरता
किसी अन्य पर ..
कितना सुन्दर है
समर्पण,
कितनी असुंदर
निर्भरता...

हैं ना
विचित्र बात
त्याग,
दान
और
अर्पण की...

किताब ज़िंदगी की ....

लिख दिए हैं
ज़िन्दगी ने,
सफ़े चाहे -अनचाहे
किताब में
मेरी तुम्हारी ,

पढ़ लिया है
डूब कर
मैंने तुझको
तूने मुझको
आगाज़ से
अंजाम तक,

ये बेजुबान
बेजान अलफ़ाज़
नहीं कह पा रहे
दास्तान
मेरी तुम्हारी ,

आओ ना !
चीर कर
उन सफ़ों को
समा जाएँ
जिल्द में
हम दोनों

हो जाएगी यूँ
मेरे हमनवा !
मुक्कमल
ये किताब
ज़िन्दगी की .....

सोमवार, 9 जुलाई 2012

तू दिया ..... मैं बाती ..!




अब कहाँ हम दूर ए साथी !
राह अपनी जगमगाती
प्रकाश है कृतित्व अपना
तू दिया ....मैं बाती ......!!

यूँ समेटा तू ने खुद में
घुल रहा अस्तित्व मेरा
जो हृदय में है प्रवाहित
सत्व तेरा और मेरा
आ भिगो दूं सीना तेरा
मेरे आंसू ,बनें थाती ......

काल कुछ ना कर पायेगा
हम शक्ति हैं एक दूजे की
तूफां सब सह लिए हैं साजन
दीप्त लौ अब ना बुझेगी
बस आलोक ही ध्येय है अपना
कृष्ण रजनी क्या रुक पाती .....!!

शनिवार, 30 जून 2012

बाकी न कोई चाहत ....



ठहरे थे यूँ पलक पे

मेरे अश्क वक़्त-ए-रुखसत

मिले छुअन तेरे लबों की

बस एक ही थी हसरत



हो रहे हो दूर मुझसे

या हुए खफा हो खुद से

नहीं फर्क इनमें कोई

दोनों की एक फितरत .....



वल्लाह ये इश्क अपना

नायाब इस जहां में

तारीख में क्या होगी

ऐसी मिसाल-ए-उलफ़त .....



तेरे होठ मुस्कुरा दें

मेरा रोम रोम हँस दे

है खुशी का ये सरमाया

होनी है इसमें बरकत ......



नहीं फ़िक्र दो जहां की

ना रस्मों से हम बंधे हैं

खुदी अपनी बेखुदी है

बाकी ना कोई चाहत ........

सहज स्वीकार करूँ मैं....

क्षुधा, पिपासा 
जीवन अंग 
चलते जाएँ 
पल पल संग 
क्यूँ प्रतिकार करूँ मैं !
सहज स्वीकार करूँ मैं ......

कभी पिपासा 
तन की जगती, 
होता कभी 
मन है प्यासा ,
भिन्न भिन्न 
आधारों पर 
धरती कई रूप 
पिपासा.. 
स्पष्ट दृष्टि 
अवलोकन करके 
वैसा ही व्यवहार करूँ मैं......

मन की ,तन की 
और जीवन की ,
हैं उत्कट 
पिपासायें ,
कर देतीं 
बरबाद कभी 
कभी जगातीं  
जिज्ञासाएं ,
नश्वर क्या है 
जान सकूं 
शाश्वत यह साकार करूँ मैं .....

कौन हूँ मैं 
और 
मैं हूँ क्यूँ !
जिज्ञासा है 
बहुत सहज ,
पा लूं उद्गम स्रोत 
मैं अपना 
प्यास निरंतर 
यही महज 
तोड़ सकूँ 
प्रस्तर चट्टानें 
यूँ सशक्त प्रहार करूँ मैं ...
क्षुधा पिपासा जीवन अंग
सहज स्वीकार करूँ मैं.......

सोमवार, 18 जून 2012

वान्छाएं .....



########


तन अपनी कुव्वत आजमाए
मन को कोई बाँध ना पाए 
मन पगला उड़ उड़ कर पहुंचे 
लोक अजाने घूम के आये .....

तन जर्जर पर मन बच्चा है 
अंतर्मन बिलकुल सच्चा है 
पड़े आवरण झूठे इस पर 
खुद को भी यह जान ना पाए ...

अहम् ,द्वेष, स्वार्थ और लोभ 
मन में उत्पन्न करते  क्षोभ 
स्रोत से भटका ,समझ ना पाया 
ज्ञान किताबी केवल भरमाये ...
ऐन्द्रिक वान्छाएं जुडी हैं तन से 
भावों में परिवर्तित मन से 
वही भाव बन कर के सोच 
निज व्यवहार में उतर ही जाए....

वान्छओं को हम पहचानें 
न दें गहरी जड़ें जमाने 
मन को मुक्त करें यदि उनसे 
सहज स्वभाव सरल हो जाए ...

शनिवार, 16 जून 2012

दर्पण सौं नेह....



दर्पण सौं नेह कहाँ है सखी री !

रजनी हो मावस पूनम की
दिवस प्रहर हो  कोई भी
जब निरखूं तब पाऊं उर में
ऐसी प्रीती कौन निबाहे री...

देखे वो मुझको जस का तस
सिंगार करूँ या रहूँ सहज
मेरे गुन-अवगुन के बिम्बों को
दिखलाये मोहे निपक्ख री  .....

ना कोई बाधा अस्तित्व नाम की,
धर्म अर्थ और मोक्ष काम की,
देह विदेह भुला कर सब कुछ
अपनाये मोहे  निष्काम री...

छवि देख मैं मन ना डिगाऊँ
सच से ना कभी नज़र चुराऊं
निज को पाने का अर्थ मिले
मुझमें वो लगन जगाये री ....

गुरुवार, 31 मई 2012

जीना पल पल ....



पल से घड़ियाँ बनती हैं
घड़ियों से रचित दिवस रजनी,
युग हो कर बन जाती सदियाँ ,
पल ही तो है सब की जननी ....


हर पल को यदि माने अंतिम
तब अर्थ उसे हम दे पाते
सजग जियें हर पल को हम
हम सच में हर पल जी पाते..


मिथ्या परिभाषाएं गढ़ कर हम
भ्रमित किया करते खुद को ,
अपने क्षुद्र हित साधन के हेतु
छवि में क्यों लायें हम बुद्ध को...


'पल में जीना' नहीं समझ सके
अनर्थ अर्थ का कर डाला
भर डाला विकृत सोचों से
स्वार्थपरता का रीता प्याला..


जन्म उद्देश्य विस्मृत कर
हर पल व्यर्थ गंवाया था
मौलिक सत्व उपेक्षित कर
विसंगतियों को अपनाया था ..


चैतन्ययुक्त जीना प्रति पल
जीवन को जगमग कर देता
तन्द्रा में गुज़रा क्षण कोई
अंतस को डगमग कर देता...


जीना यदि है पल पल जीवन
करें सार्थक हम हर क्षण
योगित कर आगत विगत पल को
करें सकारात्मक हम यह क्षण ...

रविवार, 13 मई 2012

जीवन गीत लिखा है ....

हृदय तार के सुर पे साथी 
मिल कर जीवन गीत लिखा है 
अपरिमित अश्रु-जल सिंचित कर 
अधरों पर यह हास खिला है ....

जो कल तूफां के तेवर थे 
बने वही आधार हमारे 
निर्मल मन और सहज मार्ग से 
भ्रम जनित व्यवहार थे  हारे 
प्रेम सूर्य से छंटा कुहासा 
स्पष्ट दृष्टि सन्मार्ग मिला है ...
हृदय तार के सुर पे साथी  
मिल कर जीवन गीत लिखा है ....

अंधियारी रजनी के डर से  
विचलित नहीं होना है हमको 
दृढ क़दमों से संग चलें हम 
पल पल विकसित होना हमको 
ना मैं ही 'मैं', ना तू 'तू ' है 
'हम' में अमिट अस्तित्व दिखा है ..
हृदय तार के सुर पे साथी 
मिल कर जीवन गीत लिखा है ....

सकल चेतना रहे सजग नित 
उलझे क्यों किसी  व्यवधान में 
समझें धर्म-अर्थ-काम -मोक्ष को 
उतरें तन्मय स्वध्यान  में 
जन्मों की है सतत साधना 
जग का हर भेद-विभेद  मिटा है ...
हृदय तार के सुर पे साथी 
मिल कर जीवन गीत लिखा है ....

गुरुवार, 3 मई 2012

डिग मत जाना ....



######


राह कठिन
धुंधली सी मंज़िल
लक्ष्य साध बस
बढ़ते जाना
बीच राह
तू डिग मत जाना ...


कर्म ही करना
हाथ में तेरे ,
प्रतिफल की
दुश्चिंता छोड़ो...
धैर्य ना छूटे ,
आस ना टूटे
सतत प्रयास
नहीं बिसराना
बीच राह
तू डिग मत जाना .....


प्रतिबद्धता
प्रति लक्ष्य के ,
देती है
उत्साह
नवऊर्जा ..
छाई हताशा
भंगित आशा
भ्रम में
स्वयं को
मत उलझाना
बीच राह
तू डिग मत जाना .....


संभावनाएं
असीम हैं राही
कर ले गवेषणा
तू मनचाही
उदार हो दृष्टि
घटित हो सृष्टि
हार हृदय तू
मुड़ मत जाना
बीच राह
तू डिग मत जाना.....


सीमित नहीं
उपलब्द्धियां तेरी
खोज स्वयं ही
राहें निज की ..
दृढ़ हो निश्चय
मन हो निर्भय
इक दिन हो
क़दमों में ज़माना
बीच राह
तू डिग मत जाना ..



सोमवार, 23 अप्रैल 2012

तेरा तुझको उपहार हूँ .....


######


मन के
सूने आँगन में ,
मधुर प्रीत
झंकार हूँ
जगती आँखों के
सपनो का ,
सत्य रूप
साकार हूँ

पाया कब औ'
कब खोया था !
गहन हृदय में ही
सोया था ,
छुपा रहा
नैनों से
अब तक
तेरा तुझको
उपहार हूँ
सत्य रूप
साकार हूँ

नज़्म कभी,
कभी गीत पुकारे
कलम से झरते
भाव तुम्हारे
प्रेम रंग से
सजा हुआ
इस भाषा का
श्रृंगार हूँ ,
सत्य रूप
साकार हूँ

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

सतत यौवन

########

जिज्ञासा अज्ञात की
रखती जीवंत
प्रफुल्ल युवा चेतना,
देह नहीं
मानस पर निर्भर
वृद्धत्व बोध
और वेदना

भ्रम हमारा ,
जानने का
सख्त कर देता हमें
नित नूतन को
ना अपनाना
जीर्ण कर देता हमें ...

जो है जाना ,
जो है देखा
जो अभी तक
ज्ञात है
थम जाते क्यूँ
कदम वहीं पर ?
कितना कुछ
अज्ञात है ....!

घेरे रहता है हमें
अज्ञात हर पल
निराकार,
प्राण आंदोलित
क्यूँ ना होते
सुन के भी
उसकी पुकार....!

चाहिए साहस ,
गवेषण करने को
अज्ञात का ,
किन्तु
सुविधामय,
सुरक्षित
मार्ग है न
ज्ञात का ....!

क्यूँ बने हम
राम से ,
या कृष्ण से
या बुद्ध से
महावीर से !!
हैं अनन्य
जगत में हम
निज सत्व खोजें
धीर से ...


खोज करने में
है जोखिम ,
मान्यताएं ,
टूट जातीं
नित नए
आयाम दिखते
धारणाएं
छूट जातीं .....

साथ ना होता
किसी का
हो अकेले
इस राह तुम
स्व-विवेक
अनुकूल हो कर
चल पड़ो
बेपरवाह तुम ....

उत्साह
सीखने का हो
मन में,
साहस ,हृदय में
भरपूर हो ,
भीड़ का
अनुमोदन नहीं
एकाकी होना
मंज़ूर हो .....

तभी चेतना
निखर उठेगी
प्राण पुष्प
खिल जाएगा ,
उम्र ना होगी
हावी हम पर
सतत यौवन
मिल जाएगा .....

( To Be Young Means Living state of MInd -Thus said OSHO )


गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

वह पाती पीथल की...(भावानुवाद)

# # #
(प्रस्तुत कविता राजस्थानी के मूर्धन्य कवि स्वर्गीय पदमश्री कन्हैया लाल जी सा सेठिया की प्रसिद्ध कृति ' पातळ'र पीथळ ' का सहज भावानुवाद है . ..ह़र भाषा का अपना प्रवाह होता है भावों के अनुसार इस प्रवाह को बनाये रखने हेतु कुछ सामान्य परिवर्तन अनुवाद करते समय किये हैं..जो इस कार्य की अपेक्षा थी...

भावों के चितेरे सेठियाजी की मूल कृति के समक्ष इस स्वान्तः सुखाय प्रयास का अस्तित्व एक पासंग समान भी नहीं है....यह तो बस एक विनम्र प्रयास मात्र है जिसमें बहुत सुधार की गुंजाईश है.....हाँ मैं अपने इस कार्य को करने के क्रम में बहुत प्रसन्न हूँ....प्रेरित हूँ. राजस्थानी भाषा को समझने में सहयोग करने के लिए विनेश जी की विनम्र आभारी हूँ ..उनके मार्गदर्शन के बिना यह कार्य संभव नहीं था ... कविवर की कलम, महाराणा प्रताप की आन-बान-शान और राष्ट्रभक्ति, पृथ्वीराज राठोड उर्फ़ पीथलसा की सूझ बूझ एवं राजपूताने की झुझारू एवं मेधावी संस्कृति को प्रणाम !)




वह पाती पीथल की...

##############

अरे घास की रोटी भी जब
बन बिलाव ही ले भागा,
नन्हा सा अमरसिंह चीख पड़ा
राणा का सोया दुःख जागा....

मैं लड़ा बहुत,मैं सहा बहुत ,
मेवाड़ी मान बचाने में,
नहीं रखी कमी रण में कोई
दुश्मन को धूल चटाने में...

जब याद करूँ हल्दी घाटी
नयनों में रक्त उतर आता,
दुःख-सुख का साथी चेतक भी
सोयी सी हूक जगा जाता...

पर आज बिलखता देखूं जब
मैं राज कुंवर को रोटी को,
विस्मृत मोहे धर्म क्षत्रियों का
भूलूँ मैं हिन्दुत्व की चोटी को...

महलों में कभी मनुहार बिना
पकवान ना खाया करता था
सोने की उजली थाली को
नीलम के पट्ट पे धरता था ....

जिसके चरण करते थे स्पर्श
फूलों के कोमल बिस्तर का ,
तरसे है भूखा प्यासा वो
कैसा यह कृत्य विधीश्वर का ...

सोच सोच दो टूक हुई
राणा की भीम बज्र छाती,
आँखों में आँसू भर बोला
लिखता मैं अकबर को पाती...

पर कैसे लिखूं दृष्टि में मेरे
अरावली हृदय सर्वोच्च लिए,
चित्तोड़ खड़ा पीछे मेरे
गौरव की ऊंची सोच लिए.....

मैं झुकूं कैसे यह आन मेरी
कुल के केसरिया बानों की,
मैं कैसे बुझूँ ! बन लपट शेष
आजादी के परवानों की....

पर फिर अमर की सुबकी सुन
राणा का जियरा भर आया
जाता हूँ शरण मैं दिल्ली की
सन्देश मुग़ल को भिजवाया....


राणा का कागज़ पढ़ कर बस
अकबर को स्वप्न सत्य लगता,
निज नयनों पर विश्वास नहीं
पढ़ पढ़ कर भी वह फिर पढता ...

क्या आज हिमालय पिघल गया
क्या आज हुआ सूरज शीतल,
क्या शेषनाग का सर डोला
ये सोच सम्राट हुआ था विकल...

तब दूत इशारे पर भागा
पीथल को बुलवाने हेतु,
किरणों सा पीथल आ पहुंचा
सब भ्रम मिटाने को अपितु ....

वो वीर बांकुरा पीथल तो
रजपूती गौरवधारी था,
क्षात्रधर्म का यह रक्षक
राणा का प्रेम पुजारी था...

बैरी के मन का काँटा था
बीकाणे का वह पूत कड़क,
राठोड कुशल रणविद्या का
समरूप दुधारे तेज खडग.....

शातिर सम्राट ने जानबूझ
घावों पर नमक लगाने को,
पीथल को तुरत बुलाया था
राणा की हार बताने को...

बांधा मैंने तू सुन पीथल !
पिंजरे में जंगली शेर पकड़,
सुन हाथ लिखा यह कागज है
फिरता तू कैसे अकड़ अकड़ ?

मर जा एक चुल्लू पानी में
क्यूँ झूठे गाल बजाता है,
प्रण भंगित है उस राणा का
यश भाट बना क्यूँ गाता है ?

मैं आज बादशाह धरती का
मेवाड़ी सिरपेच पगों में है,
अब मुझे बता किस राजन का
रजपूती खून रगों में है ?


पीथल ने जब कागज देखा
राणा की सही निशानी का,
धरती क़दमों से सरक गयी
आँखों में झरना पानी का ....

पर फिर तत्काल संभलते ही
कहा बात सरासर झूठी है,
राणा की पाग सदा ऊंची
राणा की आन अटूटी है ...

हो हुकुम अगर तो लिख पूछूं
राणा से कागज की खातिर,
पूछ भले ही ले पीथल
है बात सही बोला अकबर ...

आज सुना मैने कोई सिंह
सियारों के संग में सोयेगा,
और आज सुना है सूरज भी
बादल की ओट में खोएगा..

आज सुना है चातक ने
धरती का पानी पीया है,
आज सुना है हाथी भी
योनि स्वान की जिया है ..

सुना आज है पति रहते
विधवा होगी यह रजपूती,
आज सुना है म्यानों में
तलवार रहेगी अब सोती....

ह्रदय मेरा तो काँप उठा
मूछों के बल और शान गयी,
राणा को पीथल लिख भेजा
यह बात गलत है या है सही...


पीथल के अक्षर पढ़ते ही
राणा की आँखें लाल हुई,
धिक्कार मुझे मैं कायर हूँ
नाहर की एक ललकार हुई....

मैं प्यासा भूखा मर जाऊं
मेवाड़ धरा आजाद रहे,
मैं घोर उजाड़ों में भटकूं
अंतस में माँ की याद रहे....

मैं राजपूत का जाया हूँ
रजपूती कर्ज चुकाऊंगा,
शीश गिरे मेरी पाग नहीं
दिल्ली का मान झुकाऊंगा....

पीथल क्या क्षमता बादल की
जो रोके रवि उजियार को
सिंह का झपट्टा सह जो सके
वो कोख मिली क्या सियार को..

धरती का पानी पीया करे
चातक की चोंच यूँ बनी नहीं,
जो जीवन कुत्ते सा जिया करे
बात ऐसे गज की भी सुनी नहीं.....

इन हाथों में शम्शीर कड़क
कैसे बेवा हो रजपूती ?
म्यान नहीं रिपु सीनों में
तलवार मिलेगी अब सोती....

मेवाड़ धधकता अंगारा
आंधी में चम् चम् चमकेगा,
प्रयाण गीत की तानों पर
पग पग खडग यह खड्केगा...

रखना पीथलसा मूंछ ऐंठ
लहू का दरिया मैं बहा दूंगा,
मैं अथक लडूंगा अकबर से
उजड़ा मेवाड़ बसा दूंगा....

जब राणा का सन्देश मिला
पीथल की छाती हुई दूनी,
हिंदुत्व-सूर्य आलोकित था
अकबर की दुनियां थी सूनी ..


....................................
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx

रविवार, 8 अप्रैल 2012

तेरा होना है.....

तेरा होना है
ज़िन्दगी मेरी ,
देखना तुझको
बंदगी मेरी ,
तुझको
खो खो के
मैंने पाया है
अब मिटी जा के
तिश्नगी मेरी ...

यूँ सहेजा है
इक अनाम सा कुछ ,
के जैसे
आब-ए-शब
गुलों पे हो ,
ना लगे धूप
इस जहां की सनम
इससे कायम है
ताज़गी मेरी.....

संग अपना है
हर लम्हा हासिल,
जैसे लहरों के संग
रहे साहिल ,
तेरी नज़रों में
जो उजाला है
उससे रोशन है
तीरगी मेरी ...

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

पञ्च-तत्व आधार है ..........

#########

पंचतत्व आधार है
अनादि अनंत इस सृष्टि का
गुण अपना कर पंचतत्व के
अंतर मिट जाता दृष्टि का .....


नहीं मात्र यह देह बनी है
पञ्च तत्वों के मिलने से
होती है विकसित आत्मा
निजत्व में इनके खिलने से .....


धरें धैर्य साक्षात धरा सा
गगन समान हो विशालता
सीखें वायु से गतिमय रहना
जल सम हममें हो तरलता .....


अग्नि तत्व दृढ़ता देता
हर बाधा से पार करे
पंचतत्व सा हो स्वभाव जब
मनुज सहज व्यवहार करे .....


मौलिक स्वरुप यही हमारा
पंचतत्व आधार है ,
आकार विलय हो जाता इनमें
सत्य तथ्य निराकार है .....

गुरुवार, 29 मार्च 2012

छोटे छोटे घूँट

########


थोड़ी है ज़िन्दगानी
पुरजोश है जीना
छोटे छोटे घूंटों से,
जीवन को है पीना ..

लौटा भी सकेगा,
फिर क्या ये ज़माना,
वक्त इसने जो हमारा
जिस तरहा है छीना ?..

मावस की तीरगी में
महताब जल्वाआरा ,
रुख-ए-रोशन पे ज़रा देखो
परदा है बहोत झीना....

शोखी-ए-शबाब गुल पे
महकी सी फिजाएं
वस्ल का ये मौसम
लगता है भीना-भीना ....

ठहरी है नज़र जबसे
मदहोश हुए ऐसे
रग रग में तो हमारे
बहे सागर औ' मीना ...





मंगलवार, 27 मार्च 2012

ऐ हमनशीं ....


होती है महसूस
कही अनकही
मैं भी वही ,
तू भी वही ..
बेलफ्ज़ मोहब्बत
रग रग से
उमड़ कर
नज़रों से बही ...

कैसे कहूँ क्या है
इस पल
मेरे ज़ेहन में ,
आ बैठे हो
तुम ही मेरे दिल के
सहन में ...
जिस्मों के
फासले से
रंज कुछ
हमको नहीं ..
जीने को ज़िंदगी
हर लम्हा
संग है हम
ऐ हमनशीं ....

बुधवार, 21 मार्च 2012

मृग-कस्तूरी वन वन.....


# # # #
ह़र स्पर्श में
मिल पाती क्या
विद्युत् सम
कोई सिहरन ?
ह़र भुज बंधन
बन सकता क्या
एक प्रेम भरा
आलिंगन ?
ह़र पायल झंकार
क्या बनती
मन-चिंतन
उर-बंधन ?
हर बादल की
शोख अदाएं
ला सकती क्या
सावन ?
ह़र वंशी धुन
कर सकती क्या
आकुल राधा चितवन ?

होता है जब
बोध सत्व का
तभी तरंगें मिलती,
क्यूँ ढूंढें
अपने सौरभ को
मृग-कस्तूरी
वन वन ?

शुक्रवार, 9 मार्च 2012

आठवां आहंग ....


####

हवाओं में घुला
फागुन का रंग..
थिरक रहा मन
झूमे अंग अंग...
टेसू का खुमार
भंग की तरंग ...
बिरहा का गीत
गा रहा मलंग...
धडकनों की लय
ज्यूँ बाजे मृदंग ..
क्यूँ ना ऐसे में
हम तुम संग ...
बज उठे तन-मन
लाखों जलतरंग ..
साध लें जीने का
अपना ही एक ढंग ...
गुनगुनाएं जीवन का
यूँ आठवां आहंग ,
आठवां आहंग .......

(आहंग -संगीतमय स्वर )

शनिवार, 3 मार्च 2012

ज़र्रे-ज़र्रे में छिपे हो


########

मेरी सूरत में तुम ही तुम नज़र आते हो मुझे
ज़र्रे-ज़र्रे में छिपे हो औ' सताते हो मुझे ....

लफ्ज़ खामोश हैं और मौसिकी बनी धड़कन
गीत की तरह तुम,दिल में ही गाते हो मुझे....

ऐसे सज धज के ना निकलो यूँ घर से ओ जालिम
मिलने जाते हो रकीबों से ,जलाते हो मुझे ....

ख़्वाब अपने हैं,जिए जा रहे जो हर लम्हे
होंगे इक रोज़ हक़ीक़त ये बताते हो मुझे ....

हुई मदहोश हूँ जब जब भी देखा है तुमको
इश्क के जाम निगाहों से पिलाते हो मुझे....


( हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने की तर्ज़ पर )

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

सम दृष्टि यथा सृष्टि,

१)
सम दृष्टि
यथा सृष्टि,
यह प्रकृति ,
ईश्वर के
दिव्य सृजन की
है अभिव्यक्ति .....

२)
अस्तित्व है,
है नहीं अहंकार,
सहजता है
है नहीं प्रतिकार...

३)
पतझड़ है
इंगित मधुमास
ह्रास पश्चात
होता विकास ....

४)
हो प्रकृति से
यदि तारतम्य ,
घटित हो
हृदयत:
सहज और साम्य...

५)
सुस्पष्ट हों
मन के
भ्रम-विभ्रम गरल ,
बन सके मनुज
विनम्र और सरल...



सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

दर्शन संभावनाओं का ...(आशु रचना )


नहीं करता घोषित
जीवन
प्रत्याभूति
अथवा
प्रतिश्रुति
सुख-शांति
और
सौभाग्य की...

मात्र करता है
उपलब्ध ,
सम्भावना
और अवसर
करने को अर्जित
इनको ....

सहज अवलोकन
यथावत
घटित
विषम का भी
देता है अवसर हमें
करने को गवेषण
उसमें निहित
सकारात्मक
सम्भावना का ....

हो कर चेतन
संभावनाओं के प्रति
ना खोएं हम
सुअवसर,
होता है यह मात्र
स्वजागृति पर
निर्भर ...

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

ना पीड़ा ,ना है संताप.....


छू जाते हैं
मन को मेरे ,
भाव कोई जब
सरल सरल ...
अंतर्मन के
गहन तलों में
हो जाता कुछ
तरल तरल ....

छा जाते हैं
मेघ घनेरे ,
रुंधा रुंधा गला
हो जाता ,
विरह व्यथा
कुछ यूँ बढती है
स्मित मेरा कहीं
खो जाता ..
हृदय समेटूं
अश्रु अपने ,
अंखियों से जाते
छलल छलल ...
अंतर्मन के
गहन तलों में
हो जाता कुछ
तरल तरल .........

अंसुअन का
यह रूप अनूठा ,
ना पीड़ा ,
ना है संताप ...
अर्पण है
आराध्य को मेरे
भोग, प्रार्थना
यही है जाप ..
मन को निर्मल
करने हेतु
बहती धाराएं
मचल मचल .....
अंतर्मन के
गहन तलों में
हो जाता कुछ
तरल तरल ....

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

तेरी नज़रों में अक्स मेरा हो....

तेरी नज़रों में अक्स मेरा हो
मुझे फिर आईना जरूरी क्या !
दिल की धड़कन में यूँ समायी हूँ
मुझको मीलों की भला दूरी क्या...!!

खुश रहे तू उसी में मेरी ख़ुशी
खुश रहूँ मैं उसी में तेरी ख़ुशी
बढ़ता जाता है सिलसिला यूँही
ग़म के आने को हो मंजूरी क्या ....!!

जी रहे गुज़रे हुए माह-ओ-साल
सुर्ख रुखसार हैं कि तेरा जमाल
छलके आँखों के मस्त पैमाने
होश खोने में अब मजबूरी क्या...!!

तेरी नज़रों से खुद को जाना है
खुदी को अपनी यूँ पहचाना है
लम्हा लम्हा जिया है जन्मों को
ज़िंदगी अब लगे अधूरी क्या.....!!!

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

समर्पण


हुआ था समर्पित
एक बीज नन्हा
धरा के
आलिंगन में
और हुआ था घटित
प्रस्फुटन
नव अंकुर का ..

पा कर
वांछित पोषण
हुआ था प्रकट
चीर कर
सीना धरा का
पाने हेतु
असीम संभावनाओं को ...

आंधी ,
तूफ़ान ,
धूप ,
बारिश
सहता हुआ सबको,
बढ़ता रहा
पल पल
हो कर
संकल्पशील
खिलाने फूलों को ..

कर नहीं सकती
विचलित
बाधाएं
प्रगति को
क्योंकि
हुई है सशक्त
जड़ें उसकी
धरती की
अन्तः गुह्यता में...

हो कर सशक्त
जड़ों से
खिला पुष्प
तत्व और सत्व का
और यूँ हुआ
फलीभूत समर्पण
बीज के सर्वस्व का

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

क्यूँ करूँ प्रतीक्षा उसकी


है समाहित
जो रगों में ,
महके मेरी
साँस में ...
क्यूँ करूँ
प्रतीक्षा उसकी
क्यूँ झूलूँ
आस और निरास में !!!....

वो बसा है
हृदय में मेरे
ना भले ही
साथ हो ..
हमसफ़र
वो ही है मेरा ,
चाहे
हाथ में ना
हाथ हो
मेरे अँसुवन में
समाया
शामिल है मेरे
हास में
क्यूँ करूँ
प्रतीक्षा उसकी
क्यूँ झूलूँ
आस और निरास में !!!.....

रूठना ,
गहरा ना उसका
जान ना पायी थी मैं
हूँ समाहित ,
मैं भी उसमें
मान ना पायी थी मैं
गाम्भीर्य मेरा
है वही,
है बस वही
परिहास में...
क्यूँ करूँ
प्रतीक्षा उसकी
क्यूँ झूलूँ
आस और निरास में !!!....

इस जगत में ,
है नहीं ,
अनुकल्प उसका
एक भी ...
राह में
मिलते हैं लाखों
कुछ बुरे,
कुछ नेक भी
ना क्षणिक
विपथन हो कोई
हूँ दृढ़ इसी
विश्वास में
क्यूँ करूँ
प्रतीक्षा उसकी
क्यूँ झूलूँ
आस और निरास में !!!....



गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

भाषा-(आशु रचना )

#######
भाषा नहीं निर्भर शब्दों पर
सम्प्रेषण होता है मूक
नयन कभी वह कह देते हैं
शब्दों से जाता जो चूक

सुना है मैंने सागर तट पर
लहरों का लयबद्ध संगीत
पाखी सांझ ढले वृक्षों पर
बुला रहे थे अपना मीत

पवन भी पत्तों के कानों में
कुछ कह के इठलाई थी
भँवरे की गुंजन को सुन कर
कँवल कली खिल आई थी

प्रेम की भाषा सच्ची भाषा
मूक प्राणी भी पहचाने
हम मानुस शब्दों में फंस कर
हो जाते इससे अनजाने