इतने जन्म ,
इतने साल,
इतने महीने,
इतने दिन ,
इतनी भीड़ ,
इतने सच ,
इतने झूठ,
इतने पाप ,
इतने पुण्य,
ना जाने क्या क्या !
लदे हुए हैं
हम पर
जाने अनजाने
पुरानी गर्द की मानिंद ...
बन गए हैं
इस गर्द पर
नक़्शे-कदम
गुज़रे वक़्त के,
नाजुक लम्हात के
कठिन हालात के ,
बन गए हैं
हम वो
जो हम नहीं ,
इतने झूठ,
इतने पाप ,
इतने पुण्य,
ना जाने क्या क्या !
लदे हुए हैं
हम पर
जाने अनजाने
पुरानी गर्द की मानिंद ...
बन गए हैं
इस गर्द पर
नक़्शे-कदम
गुज़रे वक़्त के,
नाजुक लम्हात के
कठिन हालात के ,
बन गए हैं
हम वो
जो हम नहीं ,
दर-असल
भुला बैठे हैं हम
सूरत और सीरत
खुद की ...
आओ ना !
मिटा दें
झाड़ कर
ना जाने
कब से जमी
इस धूल को ,
जान लें और छू लें ,
अपने उस वजूद को ,
जो हैं हम
महज़ हम ....
भुला बैठे हैं हम
सूरत और सीरत
खुद की ...
आओ ना !
मिटा दें
झाड़ कर
ना जाने
कब से जमी
इस धूल को ,
जान लें और छू लें ,
अपने उस वजूद को ,
जो हैं हम
महज़ हम ....
आओ ना !
जवाब देंहटाएंमिटा दें
झाड़ कर
ना जाने
कब से जमी
इस धूल को ,
जान लें और छू लें ,
अपने उस वजूद को ,
जो हैं हम
वाह ! कितना सुंदर आवाहन है..दिल को छूने वाली कविता, आभार!