गुरुवार, 26 जुलाई 2012

समवेत.......

दिखते बाहर हैं
रंग अनेकों
अंतस है
शुभ्र श्वेत
गुंजारित है
हर कण में
सुर अपना
समवेत ....

सावन की
बूंदों ने देखो
हर पात का
चेहरा धुला दिया
झुलसा मन ,
तन धूल अटा था
सहज ही
सब कुछ
भुला दिया
मौसम ,
जीवन में देता है
परिवर्तन संकेत...

इन्द्रधनुष के रंग
हैं अपने
हरी धरा
नभ नील के
सपने
जीवन में
सब वही है
मिलता
जो होता अभिप्रेत ....

मोह माया से
हो निर्लिप्त
मन लिप्साओं से
मुक्त हुआ,
निज-पर के
सब भाव तिरोहित
सहज प्रेम से
युक्त हुआ
है सकल जगत
निकेत उसी का
जो होता अनिकेत ...

जो जैसा है
वैसा ही जब ,
हमने था
स्वीकार किया ,
गिरे आवरण
सहज रूप में
निज को
अंगीकार किया
मूल सत्व ही
परम तत्व है
घटित जहाँ अद्वेत ...
गुंजारित है
हर कण में
सुर अपना
समवेत ....

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