शनिवार, 25 अगस्त 2012

चंद घड़ियों के पड़ाव .....


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होती है मुश्किल
मान लेते हैं
जब हम
शाश्वत
मोह -माया
और
ऐन्द्रिक सुखों को,
बन जाते हैं वे
बंधन
नागफांस से,
बीत जाता है
पूरा जीवन
ढ़ोने
निबाहने
और
बरबस जीने में
उनको ...


हो कर चेतन
क्यों ना जिये हम
जग को
पूरे होशो हवाश के संग,
आत्मसात करके
इस सच को कि
कुछ भी नहीं
चिरस्थायी यहाँ,
देखो ना
खिलता है फूल
मुरझाता है
और
जाता है झर भी,
नहीं करते ना
हम विलाप
उसकी मौत पर
करते हैं
यद्यपि प्रेम
फूल के
सौन्दर्य और सौरभ से
देता है जो
अनिर्वचनीय
प्रसन्नता हम को...


किया था
दमन
बुद्ध ने भी
घोर तपस्या कर
अन्न जल छोड़ कर
किन्तु
स्वीकारा था
उन्होंने भी
सुजाता की खीर को
हुआ था उजागर
सत्य कि
होने देहातीत
देह का
अनुपालन भी है
अनिवार्य...


नहीं है
मार्ग धर्म का
पलायन
जग से ,
कर देना त्याग
सभी खुशियों का
और
जीते रहना
एक नीरस
रूखा सा जीवन,
हो कर सजग
जीयें समग्र
जाने और मानें
हम
अस्थायी है यहाँ
सब कुछ....


नाव है मात्र
यह देह
यह ध्यान
यह साधना
यह धर्म
उस पार जाने हेतु,
जाकर उस पार
लादे फिरेंगे हम
उनको
यदि कंधे पर अपने
होगा वह
एक मूढ़ कृत्य हमारा...


खिलाता है
सौन्दर्य अस्तित्व का ,
हमारे आंतरिक सौन्दर्य को,
सहज ऐन्द्रिक सुख
हैं बस
मरुस्थल में
शाद्वल,
हम तो हैं ना
एक लम्बी
अंतर्यात्रा पर ,
हो सकते हैं वे
चन्द घड़ियों के
पड़ाव हमारे
तनिक सुस्ताने को
ना कि
मंज़िले मक़सूद हमारी...




(शाद्वल=नखलिस्तान /oasis , मंज़िले मक़सूद =अभीष्ट गंतव्य )

24/07/2012

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