रविवार, 9 सितंबर 2012

आवरण और आचरण ....



जाने क्यों
ओढ़ लेते हैं हम
कैसे कैसे आवरण ,
भिन्न रहता है
निज चिंतन से
हमारा आचरण

अंतर
कथनी और करनी का
पाट नहीं
हम हैं पाते
बस किताबी बातें ,
शब्दों में
हम दोहराते

संकल्प हृदय में
दृढ यदि तो
है प्राप्य
मार्ग धर्म का,
हो सजग
कर दें समापन
अंतर
चिंतन-कथ्य-कर्म का

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