मंगलवार, 27 मार्च 2012

ऐ हमनशीं ....


होती है महसूस
कही अनकही
मैं भी वही ,
तू भी वही ..
बेलफ्ज़ मोहब्बत
रग रग से
उमड़ कर
नज़रों से बही ...

कैसे कहूँ क्या है
इस पल
मेरे ज़ेहन में ,
आ बैठे हो
तुम ही मेरे दिल के
सहन में ...
जिस्मों के
फासले से
रंज कुछ
हमको नहीं ..
जीने को ज़िंदगी
हर लम्हा
संग है हम
ऐ हमनशीं ....

1 टिप्पणी:

  1. जब रूह से रूह का मिलन हो तो जिस्मों की वाकई कोई आवश्यकता नहीं ..

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