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भाषा नहीं निर्भर शब्दों पर
सम्प्रेषण होता है मूक
नयन कभी वह कह देते हैं
शब्दों से जाता जो चूक
सुना है मैंने सागर तट पर
लहरों का लयबद्ध संगीत
पाखी सांझ ढले वृक्षों पर
बुला रहे थे अपना मीत
पवन भी पत्तों के कानों में
कुछ कह के इठलाई थी
भँवरे की गुंजन को सुन कर
कँवल कली खिल आई थी
प्रेम की भाषा सच्ची भाषा
मूक प्राणी भी पहचाने
हम मानुस शब्दों में फंस कर
हो जाते इससे अनजाने
2 टिप्पणियां:
सच है ..प्रेम की भाषा ही सच्ची भाषा है...सटीक कहा,सुन्दर शब्दों में बाँध कर,आपने.
्प्रेम की भाषा के आगे सारी भाषायें व्यर्थ हैं।
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