मंगलवार, 7 अगस्त 2012

जगती आँखें....

छू कर
तेरा मन
ओ साजन !
हृदय को मेरे
मिलती पांखें ,
साथ हमारा
नहीं है सपना
मुंदी हुई हैं
जगती आँखें ....


शब्द जाल का
नहीं है बंधन ,
प्रतिबद्ध भाव
अनुभूति है ,
गहन प्रेम
मुखर कभी तो
कभी
मौन अभिव्यक्ति है ....


हार गए हम
अपने 'मैं' को ,
जीत की
ना अब
कोई चाहत
'तुम' 'मैं' का
हर भेद मिट चुका
'हम' हो कर
है पाई राहत ...


पतझड़ बीता
कोंपल फूटी
पुष्प श्रृंगारित
हैं सब शाखें ,
साथ हमारा
नहीं है सपना
मुंदी हुई हैं
जगती आँखें...

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मैं को मिटा के हम का आनद ही परम आनंद है ... सुन्दर भाव मय रचना ..