शनिवार, 30 जून 2012

बाकी न कोई चाहत ....



ठहरे थे यूँ पलक पे

मेरे अश्क वक़्त-ए-रुखसत

मिले छुअन तेरे लबों की

बस एक ही थी हसरत



हो रहे हो दूर मुझसे

या हुए खफा हो खुद से

नहीं फर्क इनमें कोई

दोनों की एक फितरत .....



वल्लाह ये इश्क अपना

नायाब इस जहां में

तारीख में क्या होगी

ऐसी मिसाल-ए-उलफ़त .....



तेरे होठ मुस्कुरा दें

मेरा रोम रोम हँस दे

है खुशी का ये सरमाया

होनी है इसमें बरकत ......



नहीं फ़िक्र दो जहां की

ना रस्मों से हम बंधे हैं

खुदी अपनी बेखुदी है

बाकी ना कोई चाहत ........

2 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

नहीं फ़िक्र दो जहां की

ना रस्मों से हम बंधे हैं

खुदी अपनी बेखुदी है

बाकी ना कोई चाहत ........

ऐसी मुहब्बत बहुत पाकीजा होती है....बहुत सुंदर कविता !

abhi ने कहा…

Waah!! too rommantic!! :)

ठहरे थे यूँ पलक पे
मेरे अश्क वक़्त-ए-रुखसत
मिले छुअन तेरे लबों की
बस एक ही थी हसरत

:)