सोमवार, 18 जून 2012

वान्छाएं .....



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तन अपनी कुव्वत आजमाए
मन को कोई बाँध ना पाए 
मन पगला उड़ उड़ कर पहुंचे 
लोक अजाने घूम के आये .....

तन जर्जर पर मन बच्चा है 
अंतर्मन बिलकुल सच्चा है 
पड़े आवरण झूठे इस पर 
खुद को भी यह जान ना पाए ...

अहम् ,द्वेष, स्वार्थ और लोभ 
मन में उत्पन्न करते  क्षोभ 
स्रोत से भटका ,समझ ना पाया 
ज्ञान किताबी केवल भरमाये ...
ऐन्द्रिक वान्छाएं जुडी हैं तन से 
भावों में परिवर्तित मन से 
वही भाव बन कर के सोच 
निज व्यवहार में उतर ही जाए....

वान्छओं को हम पहचानें 
न दें गहरी जड़ें जमाने 
मन को मुक्त करें यदि उनसे 
सहज स्वभाव सरल हो जाए ...

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच कहा है मन कों मुक्त करके खुला उड़ने देना चाहिए ... और वैसे भी मन कों कौन बाँध सका है ...