दर्पण सौं नेह कहाँ है सखी री !
रजनी हो मावस पूनम की
दिवस प्रहर हो कोई भी
जब निरखूं तब पाऊं उर में
ऐसी प्रीती कौन निबाहे री...
देखे वो मुझको जस का तस
सिंगार करूँ या रहूँ सहज
मेरे गुन-अवगुन के बिम्बों को
दिखलाये मोहे निपक्ख री .....
ना कोई बाधा अस्तित्व नाम की,
धर्म अर्थ और मोक्ष काम की,
देह विदेह भुला कर सब कुछ
अपनाये मोहे निष्काम री...
निज को पाने का अर्थ मिले
मुझमें वो लगन जगाये री ....
रजनी हो मावस पूनम की
दिवस प्रहर हो कोई भी
जब निरखूं तब पाऊं उर में
ऐसी प्रीती कौन निबाहे री...
देखे वो मुझको जस का तस
सिंगार करूँ या रहूँ सहज
मेरे गुन-अवगुन के बिम्बों को
दिखलाये मोहे निपक्ख री .....
ना कोई बाधा अस्तित्व नाम की,
धर्म अर्थ और मोक्ष काम की,
देह विदेह भुला कर सब कुछ
अपनाये मोहे निष्काम री...
छवि देख मैं मन ना डिगाऊँ
सच से ना कभी नज़र चुराऊंनिज को पाने का अर्थ मिले
मुझमें वो लगन जगाये री ....
1 टिप्पणी:
जब ऐसी साधना होगी तो लगन जरूर जगेगी।
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