रविवार, 30 जनवरी 2011

शल्य-चिकित्सा

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मरहम
तुम्हारे स्नेह का
पहुँच जाता है ,
यत्न से लगायी
मुस्कुराहटों की
तहों को चीर,
अंतर्मन की
गहरायी में छिपे
अनजाने से
ज़ख्मों तक ...
जिनके होने का
एहसास कराती है
'टीस ',
जो हो उठती है
मुखर ,
मरहम का
स्नेहिल स्पर्श
पा कर ...
भ्रम में ही
रह जाती हूँ मैं
ज़ख्मों के ना होने
या
उनको
भरा हुआ
समझ लेने के
और
एक
कुशल
चिकित्सक की तरह ,
भावनाओं के
औजारों से
करके
शल्य-चिकित्सा,
बचा लेते हो तुम
मेरे ज़ख्मों को
'नासूर' बनने से .....

8 टिप्‍पणियां:

Anupama Tripathi ने कहा…

एक
कुशल
चिकित्सक की तरह ,
भावनाओं के
औजारों से
करके
शल्य-चिकित्सा,
बचा लेते हो तुम
मेरे ज़ख्मों को
'नासूर' बनने से .....

खूबसूरत अभिव्यक्ति -
सुंदर एहसास अंतर्मन के -
बधाई

विशाल ने कहा…

बहुत ही बढ़िया अभिव्यक्ति .
सच मुच कई बार ऐसे लगता है की कोई हमारे ज़ख्मों को कुरेदे भी और मरहम भी लगाए .
कवि के ज़ख़्म नासूर ही होते हैं.
शुभ कामनाएं.

shyam gupta ने कहा…

सुन्दर..अति-सुन्दर...बिना शलाका शल्य चिकित्सा...

बेनामी ने कहा…

मुदिता जी,

बहुत ही खुबसूरत अहसास......सुन्दर बिम्बों का इस्तेमाल......खुदा न करे कभी कोई ज़ख्म नासूर न बन पाए|

Kailash Sharma ने कहा…

भावनाओं के
औजारों से
करके
शल्य-चिकित्सा,
बचा लेते हो तुम
मेरे ज़ख्मों को
'नासूर' बनने से ....

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..

नीरज गोस्वामी ने कहा…

विलक्षण भाव लिए आपकी रचना श्रेष्ठ है...बधाई
नीरज

lotusindia ने कहा…

kash aisa koi hakim mil jaye.....jo sirf shabdon se hi antarman ke ghav ruzayen......unke shabdon ka sparsh hi marham ho jayen.....ruh ke bheetar rab banke vahi bas jaye!

अरुण अवध ने कहा…

सुन्दर मनोविश्लेषण प्रस्तुत किया आपने !
बहुत बधाई !